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संसारिक प्रेम और देश-प्रेम


शहर लन्दन के एक पुराने टूटे-फूटे होटल में जहां शाम ही से अँधेराहो जाता है, जिस हिस्से में फैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहाँ जुआ, शराब-खोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आंख के सामने रहते हैं उस होटल में, उस बदचलनी के अखाड़े में इटली का नामवर देश-प्रेमी मैचिनी खामोश बैठा हुआ है। उसका सुन्दर चेहरा पीला है, आँखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं और शायद महीनों से हजामत नहीं बनी। कपड़े मैले कुचैले हैं। कोई व्यक्ति जो मैज़िनी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह खयाल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्हीं अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के गुलाम होकर जलील से जलील काम करते हैं।

मैजिनी अपने विचारों में डूबा हुआ है। आह बदनसीब कौम! ऐ मजलूम इटली! क्या तेरी किस्मतें कभी न सुधरेंगी, क्या तेरे सैकड़ों सपूतों का खून जरा भी रंग न लायेगा! क्या तेरे देश से निकाले हुए हज़ारों जानिसारों की आहों में जरा भी तासीर नहीं। क्या तू अन्याय और अत्याचार और गुलामी के फंदे में हमेशा गिरफ्तार रहेगी। शायद तुझमें अभी सुधरने की, स्वतन्त्र होने की योग्यता नहीं आयी। शायद तेरी किस्मत में कुछ दिनों और जिल्लल और बर्बादी झेलनी लिखी है। आज़ादी, हाय आज़ादी, तेरे लिए मैंने कैसे-कैसे दोस्त, जान से प्यारे दोस्त कुर्बान किये। कैसे-कैसे नौजवान होनहार नौजवान, जिनकी माएँ और बीवियाँ आज उनकी क़द्र पर आँसू बहा रही हैं और अपने कष्टों और आपदाओं से तंग आकर उनके वियोग के कष्ट में अभागे, आफ़त के मारे मैजिनी को शाप दे रही हैं। कैसे-कैसे शेर जो दुश्मनों के सामने पीठ फेरना न जानते थे, क्या यह सब कुर्बानियाँ, यह सब भेटें काफ़ी नहीं हैं? आजादी तू ऐसी कीमती चीज है! हां तो फिर मैं क्यों जिन्दा रहूँ? क्या यह देखने के लिए कि मेरा प्यारा वतन, मेरा प्यारा देश, धोखेबाज़ अत्याचारी दुश्मनों के पैरों तले रौंदा जाये, मेरे प्यारे भाई, मेरे प्यारे हमवतन, अत्याचार का शिकार बनें। नहीं मैं यह देखने के लिए जिन्दा नहीं रह सकता!