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गुप्त धन
 


मुसाफ़िर—ओफ्कोह!

चेतराम—मगर ज्योंही कोई आदमी उसे हाथ में ले लेता है, उसकी सारी चमक-दमक गायब हो जाती है।

यह अजीब बात सुनकर उस मुसाफिर की वही कैफ़ियत हो गयी जो एक आश्चर्यजनक कहानी सुनने से बच्चों की हो जाया करती है। उसकी आँख और भंगिमा से अधीरता प्रकट होने लगी। जोश से बोला-विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है!

जरा देर के बाद फिर बोला—वह कौन बुजुर्ग हैं जिनके पास यह अनमोल चीज़ है?

प्रेमसिंह ने गर्व से कहा—मेरे पास है।

मुसाफिर—क्या मैं उसे देख सकता हूँ?

प्रेमसिंह—हाँ, मैं आपको सवेरे दिखाऊंगा। मगर नहीं, ठहरिए, सवेरे तो हम उसे महाराज रनजीतसिंह को भेंट करेंगे, आपका जी चाहे तो इसी वक्त देख लीजिए।

दोनों आदमी चौपाल से चल खड़े हुए। प्रेमसिंह ने मुसाफिर को अपने घर में ले जाकर तेगे के पास खड़ा कर दिया। इस कमरे में चिराग न था मगर सारा कमरा रोशनी से जगमगा रहा था। मुसाफिर ने पुरजोश आवाज़ से कहा—विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है, इतना ज़माना गुजरने पर भी तुम्हारी तलवार का तेज कम नहीं हुआ।

यह कहकर उसने बड़े चाव से हाथ बढ़ाकर तेगे को पकड़ लिया मगर उसका हाथ लगते ही तेगे की चमक जाती रही और कमरे में अँधेरा छा गया।

मुसाफिर ने फौरन तेगे को तख्त पर रख दिया। उसका चेहरा अब बहुत उदास हो गया था। उसने प्रेमसिंह से कहा—क्या तुम यह तेगा रनजीतसिंह को भेंट दोगे? वह इसे हाथ में लेने योग्य नहीं है।

यह कहकर मुसाफिर तेजी से बाहर निकल आया। वृन्दा दरवाजे पर खड़ी थी, मुसाफिर ने उसके चेहरे की तरफ एक वार गौर से देखा, मगर कुछ बोला नहीं।

रात आधी से ज्यादा गुजर चुकी थी। मगर फ़ौज में शोर-गुल बदस्तूर जारी था। खुशी के हंगामे ने नींद को सिपाहियों की आँखों से दूर भगा दिया है। अगर कोई अँगड़ाई लेता या ऊँघता नजर आ जाता है तो उसके साथी उसे एक टाँग से खड़ा