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आल्हा
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गयीं। जयचन्द आँखें विछाये बैठा था। आल्हा को अपना सेनापति बना दिया।

आल्हा और ऊदल के चले जाने के बाद महोवे में तरह तरह के अंधेर शुरू हुए। परमाल कमजोर शासक था। मातहत राजाओं ने बग़ावत का झण्डा वुलन्द किया। ऐसी कोई ताक़त न रही जो उन झगड़ालू लोगों को वश में रख सके। दिल्ली के राजा पृथ्वीराज की कुछ सेना सिमता से एक सफल लड़ाई लड़कर वापस आ रही थी। महोबे में पड़ाव किया। अक्खड़ सिपाहियों में तलवार चलते कितनी देर लगती है। चाहे राजा परमाल के मुलाजिमों की ज्यादती हो चाहे चौहान सिपा- हियों की, नतीजा यह हुआ कि चन्देलों और चौहानों में अनबन हो गयी। लड़ाई छिड़ गयी। चौहान संख्या में कम थे। चन्देलों ने आतिथ्य-सत्कार के नियमों को एक किनारे रखकर चौहानों के खून से अपना कलेजा ठंडा किया और यह न समझे कि मुट्ठी भर सिपाहियों के पीछे सारे देश पर विपत्ति आ जायगी। वेगुनाहों का खून रंग लायेगा। पृथ्वीराज को यह दिल तोड़नेवाली खबर मिली तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। आंधी की तरह महोवे पर चढ़ दौड़ा और सिरको जो इलाक़ा महोबे का एक मशहूर कस्वा था, तबाह करके महोबे की तरफ़ बढ़ा। चन्देलों ने भी फ़ौज खड़ी की। मगर पहले ही मुकाबिले में उनके हौसले पस्त हो गये। आल्हा-ऊदल के बगैर फौज विन दूल्हे की वारात थी। सारी फ़ौज तितर- बितर हो गयी। देश में तहलका मच गया। अब किसी क्षण पृथ्वीराज महोबे में आ पहुँचेगा, इस डर से लोगों के हाथ-पाँव फूल गये। परमाल अपने किये पर बहुत पछताया। मगर अब पछताना व्यर्थ था। कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज'. से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की। चौहान राजा युद्ध के नियमों को कभी हाथ से न जाने देता था। उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत न देती थी। इस मामले में अगर वह इन नियमों का इतनी सख्ती से पावन्द न होता तो शहाबुद्दीन के हाथों उसे वह बुरा दिन न देखना पड़ता। उसकी बहादुरी ही उसकी जान की गाहक हुई। उसने परमाल का पैग़ाम मंजूर कर लिया। चन्देलों की जान में जान आयी।

अब सलाह-मशविरा होने लगा कि पृथ्वीराज से क्योंकर मुक़ाबिला किया जाय। रानी मलिनहा भी इस मशविरे में शरीक थी। किसी ने कहा, महोबे के चारों तरफ़ एक ऊँची दीवार बनायी जाय; कोई बोला हम लोग महोबे को वीरान