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गुप्त धन
 

करके दक्खिन की ओर चलें। परमाल जबान से तो कुछ न कहता था, मगर समर्पण के सिवा उसे और कोई चारा न दिखायी पड़ता था। तब रानी मलिनहा खड़ी होकर बोली-

"चन्देल वंश के राजपूतो, तुम कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? क्या दीवार खड़ी करके तुम दुश्मन को रोक लोगे? झाडू से कहीं आँधी रुकती है। तुम महोबे को वीरान करके भागने की सलाह देते हो। ऐसी कायरों जैसी सलाह औरतें दिया करती हैं। तुम्हारी सारी बहादुरी और जान पर खेलना अब कहाँ गया? अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि चन्देलों के नाम से राजे थर्राते थे। चन्देलों की धाक बंधी हुई थी, तुमने कुछ ही सालों में सैकड़ों मैदान जीते, तुम्हें कभी हार नहीं हुई। तुम्हारी तलवार की दमक कभी मन्द नहीं हुई। तुम अब भी वही हो, मगर तुममें अब वह पुरुषार्थ नहीं है। वह पुरुषार्थ बनाफर वंश के साथ महोबे से उठ गया। देवल देवी के रूठने से चण्डिका देवी भी हमसे रूठ गयीं। अब अगर कोई यह हारी हुई बाज़ी सम्हाल सकता है तो वह आल्हा है। वही दोनों भाई इस नाजुक वक्त में तुम्हें बचा सकते हैं। उन्हीं को मनाओ, उन्हीं को समझाओ, उन पर महोबे के बहुत हक हैं। महोबे की मिट्टी और पानी से उनकी परवरिश हुई है। वह महोवे के हक कभी भूल नहीं सकते, उन्हें ईश्वर ने बल और विद्या दी हैं, वही इस समय विजय का बीड़ा उठा सकते हैं।"

रानी मलिनहा की बातें लोगों के दिलों में बैठ गयीं।

जगना भाट आल्हा और ऊदल को कन्नौज से लाने के लिए रवाना हुआ। यह दोनों भाई राजकुंवर लाखन' के साथ शिकार खेलने जा रहे थे कि जगना ने पहुँचकर प्रणाम किया। उसके चेहरे से परेशानी और झिझक वरस रही थी। आल्हा ने घबराकर पूछा--कवीश्वर, यहाँ कैसे भूल पड़े? महोबे में तो सब खैरियत है? हम गरीबों को क्योंकर याद किया?

जगना की आँखों में आँसू भर आयें, बोला---अगर खैरियत होती तो तुम्हारी शरण में क्यों आता। मुसीबत पड़ने पर ही देवताओं की याद आती है। महोबे पर इस समय इन्द्र का कोप छाया हुआ है। पृथ्वीराज चौहान महोबे को घेरे पड़ा है। नरसिंह और वीरसिंह तलवारों की भेंट हो चुके हैं। सिरको सारा राख का. ढेर हो गया। चन्देलों का राज वीरान हुआ जाता है। सारे देश में कुहराम मचा हुआ