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122 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


कुछ हुआ, धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी और धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गई थी। दोनों ने सोचा था, गेहूं और तिलहन से लगान की एक किस्त अदा हो जायगी और हो सके तो थोड़ा-थोड़ा सूद भी दे देंगे। जौ खाने के काम आएगा। लंगे-तंगे पांच-छ: महीने कट जायंगे, तब तक जुआर, मक्का, सांवा, धान के दिन आ जायंगे। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गई। अनाज तो हाथ से गया ही, सौ रुपये की गठरी और सिर पर लद गई। अब भोजन का कहीं ठिकाना नहीं। और गोबर का क्या हाल हुआ, भगवान् जाने। न हाल न हवाल। अगर दिल इतना कच्चा था, तो ऐसा काम ही क्यों किया? मगर होनहार कौन टाल सकता है। बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लादकर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों से अपनी कब्र खोद रहा हो। जमींदार, साहूकार, सरकार, किसका इतना रोब था? कल बाल-बच्चे क्या खाएंगे, इसकी चिंता प्राणों को सोखे लेती थी, पर बिरादरी का भय पिशाच की भांति सर पर सवार आंकुस दिए जा रहा था। बिरादरी से पृथक् जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकता था। शादी-ब्याह, मुंडन-छेदन, जन्म-मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भांति जड़ जमाए हुए थी और उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिंधी हुई थीं। बिरादरी से निकलकर उसका जीवन विशृंखल हो जायगा-तार-तार हो जायगा।

जब खलिहान में केवल डेढ़-दो मन जौ रह गया, तो धनिया ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-अच्छा अब रहने दो। ढो तो चुके बिरादरी की लाज। बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगे? मैं तुमसे हार जाती हूं। मेरे भाग्य में तुम्हीं जैसे बुद्धू का संग लिखा था।

होरी ने अपना हाथ छुड़ाकर टोकरी में अनाज भरते हुए कहा-यह न होगा धनिया, पंचों की आंख बचाकर एक दाना भी रख लेना मेरे लिए हराम है। मैं ले जाकर सब-का-सब वहां ढेर कर देता हूं। फिर पंचों के मन में दया उपजेगी, तो कुछ मेरे बाल-बच्चों के लिए देंगे, नही भगवान् मालिक है।

धनिया तिलमिलाकर बोली-यह पंच नहीं हैं, राच्छस हैं, पक्के राच्छस। यह सब हमारी जगह-जमीन छीनकर माल मारना चाहते हैं। डांड़ तो बहाना है। समझाती जाती हूं, पर तुम्हारी आंखें नहीं खुलतीं। तुम इन पिसाचों से दया की आसा रखते हो? सोचते हो, दस-पांच मन निकालकर तुम्हें दे देंगे। मुंह धो रखो।

जब होरी ने न माना और टोकरी सिर पर रखने लगा, तो धनिया ने दोनों हाथों से पूरी शक्ति के साथ टोकरी पकड़ ली और बोली-इसे तो मैं न ले जाने दूंंगी, चाहे तुम मेरी जान ही ले लो। मर-मरकर हमने कमाया, पहर रात-रात को सींचा, अगोरा, इसलिए कि पंच लोग मूछों पर ताव देकर भोग लगाएं और हमारे बच्चे दाने-दाने को तरसें। तुमने अकेले ही सब कुछ नहीं कर लिया है। मैं भी अपनी बच्चियों के साथ सती हुई हूं। सीधे से टोकरी रख दो। नहीं आज सदा के लिए नाता टूट जायगा। कहे देती हूं।

होरी सोच में पड़ गया। धनिया के कथन में सत्य था। उसे अपने बाल-बच्चों की कमाई छीनकर तावान देने का क्या अधिकार है। वह घर का स्वामी इसलिए है कि सबका पालन करे, इसलिए नहीं कि उनकी कमाई छीनकर बिरादरी की नजर में सुर्खरू बने। टोकरी उसके हाथ से छूट गई। धीरे से बोला-तू ठीक कहती है धनिया। दूसरों के हिस्से पर मेरा कोई जोर नहीं