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126 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


वे सब इस भूकंप में नीचे आ रहे और वह झोंपड़ा नीचे गिर पड़ा। वह पीछे लौटा। अब वह झुनिया को क्या मुंह दिखाए ।

वह सौ कदम चला, पर इस तरह जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे। उसने झुनिया से प्रीति और विवाह की जो बातें की थीं, वह सब याद आने लगीं। वह अभिसार की मीठी स्मृतियां याद आईं, जब वह अपने उन्मत्त उसांसों में, अपनी नशीली चितवनों में मानो अपने प्राण निकालकर उसके चरणों पर रख देता था। झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भांति अपने छोटे-से घोंसले में एकांत-जीवन काट रही थी। वहां नर का मत्त आग्रह न था, न वह उद्दीप्त उल्लास, न शावकों की मीठी आवाजें, मगर बहेलिये का जाल और छल भी तो वहां न था। गोबर ने उसके एकांत घोंसले में जाकर उसे कुछ आनंद पहुंचाया या नहीं, कौन जाने, पर उसे विपत्ति में डाल ही दिया। वह संभल गया। भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सुनकर पीछे लौट पड़ा।

उसने द्वार पर आकर देखा, तो किवाड़ बंद हो गए थे। किवाड़ों के दराजों से प्रकाश की रेखाएं बाहर निकल रही थीं। उसने एक दरार से अंदर झांका। धनिया और झुनिया बैठी हुई थीं। होरी खड़ा था। झुनिया की सिसकियां सुनाई दे रही थीं और धनिया उसे समझा रही थी-बेटी, तू चलकर घर में बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को देख लूंगी। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिंता नहीं है। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आंखों देख भी न सकेगा। गोबर गद्गद हो गया। आज वह किसी लायक होता, तो दादा और अम्मां को सोने से मढ़ देता और कहता-अब तुम कुछ परवा न करो, आराम से बैठे खाओ और जितना दान-पुन्न करना चाहो करो। झुनिया के प्रति अब उसे कोई शंका नहीं है। वह उसे जो आश्रय देना चाहता था, वह मिल गया। झुनिया उसे दगाबाज समझती है, तो समझे। वह तो अब तभी घर आएगा, जब वह पैसे के बल से सारे गांव का मुंह बंद कर सके और दादा और अम्मां उसे कुल का कलंक न समझकर कुल का तिलक समझें। मन पर जितना ही गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती है। इस अपकीर्ति और कलंक ने गोबर के अंतस्तल को मथकर वह रत्न निकाल लिया, जो अभी तक छिपा पड़ा था। आज पहली बार उसे अपने दायित्व का ज्ञान हुआ और उसके साथ ही संकल्प भी। अब तक वह कम-से-कम काम करना और ज्यादा-से-ज्यादा खाना अपना हक समझता था। उसके मन में कभी यह विचार ही नहीं उठा कि घरवालों के साथ उसका भी कुछ कर्तव्य है। आज माता-पिता की उदात्त क्षमा ने जैसे उसके हृदय में प्रकाश डाल दिया। जब धनिया और झुनिया भीतर चली गई, तो वह होरी की उसी मंडै़या में जा बैठा और भविष्य के मंसूबे बांधने लगा।

शहर के बेलदारों को पांच-छ: आने रोज मिलते हैं, यह उसने सुन रखा था। अगर उसे छ: आने रोज मिलें और वह एक आने में गुजर कर ले, तो पांच आने रोज बच जायं। महीने में दस रुपये होते हैं, और साल-भर में सवा सौ। वह सवा-सौ की थैली लेकर घर आए, तो किसकी मजाल है, जो उसके सामने मुंह खोल सके? यही दातादीन और यही पटेसरी आकर उसकी हां में हां मिलाएंगे और झुनिया तो मारे गर्व के फूल जाय। दो-चार साल वह इसी तरह कमाता रहे, तो सारे घर का दलिद्दर मिट जाय। अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ नहीं होती। अब वह अकेला सवा सौ कमाएगा। यही तो लोग कहेंगे कि मजूरी करता है। कहने दो। मजूरी करना कोई पाप तो नहीं है। और सदा छ: आने थोड़े मिलेंगे। जैसे-जैसे वह काम में