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गोदान : 221
 

खन्ना ने रायसाहब को धन्यवाद की आंखों से देखा-इन्हीं बातों पर गोविन्दी से मेरा जी जलता है, और उस पर मुझी को लोग बुरा कहते हैं। आप ही सोचिए, मुझे इन झगड़ों से क्या मतलब? इनमें तो वह पड़े, जिसके पास फालतू रुपये हों फालतू समय हो और नाम की हवस हो। होना यही है कि दो-चार महाशय सेक्रेटरी और अंडर सेक्रेटरी और प्रधान और उपप्रधान बनकर अफसरों को दावतें देंगे, उनके कृपापात्र बनेंगे और यूनिवर्सिटी की छोकरियों को जमा करके बिहार करेंगे। व्यायाम तो केवल दिखाने के दांत हैं। ऐसी संस्था में हमेशा यही होता है और यही होगा और उल्लू बनेंगे हम, और हमारे भाई, जो धनी कहलाते हैं और यह सब गोविन्दी के कारण।

वह एक बार कुरसी से उठे, फिर बैठ गए। गोविन्दी के प्रति उनका क्रोध प्रचंड होता जाता था। उन्होंने दोनों हाथ से सिर को संभालकर कहा-मैं नहीं समझता, मुझे क्या करना चाहिए।

रायसाहब ने ठकुरसोहाती की-कुछ नहीं, आप गोविन्दी देवी से साफ कह दें, तुम मेहता को इंकारी खत लिख दो, छुट्टी हुई। मैं तो लाग-डांट में फंस गया। आप क्यों फंसें?

खन्ना ने एक क्षण इस प्रस्ताव पर विचार करके कहा-लेकिन सोचिए, कितना मुश्किल काम है। लेडी विलसन से जिक्र आ चुका होगा, सारे शहर में खबर फैल गई होगी और शायद आज पत्रों में भी निकल जाय। यह सब मालती की शरारत है। उसी ने मुझे जिच करने का यह ढंग निकाला है।

'हां, मालूम तो यही होता है।'

'वह मुझे जलील करना चाहती हैं।'

'आप शिलान्यास के लिए दिन बाहर चले जाइएगा।'

'मुश्किल है रायसाहब कहीं मुंह दिखाने की जगह न रहेगी। उस दिन तो मुझे हैजा भी हो जाए तो वहां जाना पड़ेगा।'

रायसाहब आाशा बांधे हुए कल आने का वादा करके ज्योंही निकले कि खन्ना ने अंदर जाकर गोविन्दी को आड़े हाथों लिया-तुमने इस व्यायामशाला की नींव रखना क्यों स्वीकार किया?

गोविन्दी कैसे कहे कि यह सम्मान पाकर वह मन में कितनी प्रसन्न हो रही थी। उस अवसर के लिए कितने मनोयोग से अपना भाषण लिख रही थी और कितनी ओजभरी कविता रची थी। उसने दिन में समझा था, यह प्रस्ताव स्वीकार करके वह खन्ना को प्रसन्न कर देगी। उसका सम्मान तो उसके पति का ही सम्मान है। खन्ना को इसमें कोई आपत्ति हो सकती है। इसकी उसने कल्पना भी न की थी। इधर कई दिन से पति को कुछ सदय देखकर उसका मन बढ़ने लगा था। वह अपने भाषण से, और अपनी कविता से लोगों को मुग्ध कर देने का स्वप्न देख रही थी।

यह प्रश्न सुना और खन्ना की मुद्रा देखी तो उसकी छाती धक-धक करने लगी। अपराधी की भांति बोली-डाक्टर मेहता ने आग्रह किया तो मैंने स्वीकार कर लिया।

'डाक्टर मेहता तुम्हें कुएं में गिरने को कहें, तो शायद इतनी खुशी से न तैयार होगी।'

गोविन्दी की जबान बंद।

'तुम्हें जब ईश्वर ने बुद्धि नहीं दी, तो क्यों मुझसे नहीं पूछ लिया? मेहता और मालती दोनों यह चाल चलकर मुझसे दो-चार हजार ऐंठने की फिक्र में हैं। और मैंने ठान लिया है कि