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गोदान : 231
 


लाठी संभाल सकें, दो चमारों ने मातादीन के मुंह में एक बड़ी-सी हड्डी का टुकड़ा डाल दिया। मातादीन ने दांत जकड़ लिए। फिर भी वह घिनौनी वस्तु उसके होंठों में तो लग ही गई। उन्हें मतली हुई और मुंह अपने-आप खुल गया और हड्डी कंठ तक जा पहुंची। इतने में खलिहान के सारे आदमी जमा हो गए, पर आश्चर्य यह कि कोई इन धर्म के लुटेरों से मुजाहिम न हुआ। मातादीन का व्यवहार सभी को नापसंद था। वह गांव की बहू-बेटियों को घूरा करता था, इसलिए मन में सभी उसकी दुर्गति से प्रसन्न थे। हां, ऊपरी मन से लोग चमारों पर रोब जमा रहे थे।

होरी ने कहा-अच्छा, अब बहुत हुआ हरखू। भला चाहते हो, तो यहां से चले जाओ।

हरखू ने निडरता से उत्तर दिया-तुम्हारे घर में लड़कियां हैं होरी महतो, इतना समझ लो। इसी तरह गांव की मरजाद बिगड़ने लगी, तो किसी की आबरू न बचेगी।

एक क्षण में शत्रु पर पूरी विजय पाकर आक्रमणकारियों ने वहां से टल जाना ही उचित समझा। जनमत बदलते देर नहीं लगती। उससे बचे रहना ही अच्छा है।

मातादीन कै कर रहा था। दातादीन ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा-एक-एक को पांच पांच साल के लिए न भेजवाया, तो कहना। पांच-पांच साल तक चक्की पिसवाऊंगा।

हरखू ने हेकड़ी के साथ जवाब दिया-इसका यहां कोई गम नहीं। कौन तुम्हारी तरह बैठे मौज करते हैं? जहां काम करेंगे, वहीं आधा पेट दाना मिल जायगा।

मातादीन कै कर चुकने के बाद निर्जीव-सा जमीन पर लेट गया, मानो कमर टूट गई हो, मानो डूब भरने के लिए चुल्लू-भर पानी खोज रहा हो। जिस मर्यादा के बल पर उसकी रसिकता और घमंड और पुरुषार्थ अकड़ता फिरता था, वह मिट चुकी थी। उस हड्डी के टुकड़े ने उसके मुंह को ही नहीं, उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था। उसका धर्म इसी खान-पान, छूत-विचार पर टिका हुआ था। आज उस धर्म की जड़ कट गई। अब वह लाख प्रायश्चित्त करे, लाख गोबर खाए और गंगाजल पिए, लाख दान-पुण्य और तीर्थ-व्रत करे, उसका मरा हुआ धर्म जी नहीं सकता। अगर अकेले की बात होती, तो छिपा ली जाती। यहां तो सबके सामने उसका धर्म लुटा। अब उसका सिर हमेशा के लिए नीचा हो गया। आज से वह अपने ही घर में अछूत समझा जाएगा। उसकी स्नेहमयी माता भी उससे घृणा करेगी। और संसार से धर्म का ऐसा लोप हो गया कि इतने आदमी केवल खड़े तमाशा देखते रहे। किसी ने चूं तक न की। एक क्षण पहले जो लोग उसे देखते ही पालागन करते थे, अब उसे देखकर मुंह फेर लेंगे। वह किसी मंदिर में भी न जा सकेगा, न किसी के बरतन-भांडे छू सकेगा। और यह सब हुआ इस अभागिन सिलिया के कारण।

सिलिया जहां अनाज ओसा रही थी, वहीं सिर झुकाए खड़ी थी, मानो यह उसी की दुर्गति हो रही है। सहसा उसकी मां ने आकर डांटा-खड़ी ताकती क्या है? चल सीधे घर, नहीं बोटी-बोटी काट डालूंगी। बाप-दादा का नाम तो खूब उजागर कर चुकी, अब क्या करने पर लगी है?

सिलिया मूर्तिवत् खड़ी रही। माता-पिता और भाइयों पर उसे क्रोध आ रहा था। यह लोग क्यों उसके बीच में बोलते हैं? वह जैसे चाहती है, रहती है, दूसरों से क्या मतलब? कहते हैं, यहां तेरा अपमान होता है, तब क्या कोई बांभन उसका पकाया खा लेगा? उसके हाथ का पानी पी लेगा? अभी जरा देर पहले उसका मन मातादीन के निष्ठुर व्यवहार से खिन्न हो रहा था, पर अपने घर वालों और बिरादरी के इस अत्याचार ने उस विराग को प्रचंड अनुराग का रूप दे दिया।