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पृष्ठ:गोदान.pdf/२३२

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232:प्रेमचंद रचनावली-6
 


विद्रोह-भरे मन से बोली-मैं कहीं नहीं जाऊंगी। तू क्या यहां भी मुझे जीने न देगी?

बुढ़िया कर्कश स्वर से बोली-तू न चलेगी?

'नहीं।'

'चल सीधे से।'

'नहीं जाती।'

तुरंत दोनों भाइयों ने उसके हाथ पकड़ लिए और उसे घसीटते हुए ले चले। सिलिया जमीन पर बैठ गई। भाइयों ने इस पर भी न छोड़ा। घसीटते ही रहे। उसकी साड़ी फट गई, पीठ और कमर की खाल छिल गई, पर वह जाने पर राजी न हुई।

तब हरखू ने लड़कों से कहा-अच्छा, अब इसे छोड़ दो। समझ लेंगे मर गई, मगर अब जो कभी मेरे द्वार पर आई तो लहू पी जाऊंगा।

सिलिया जान पर खेलकर बोली-हां, जब तुम्हारे द्वार पर आऊं तो पी लेना।

बुढ़िया ने क्रोध के उन्माद में सिलिया को कई लातें जमाईं और हरखू ने उसे हटा न दिया होता, तो शायद प्राण ही लेकर छोड़ती।

बुढ़िया फिर झपटी, तो हरखू ने उसे धक्के देकर पीछे हटाते हुए कहा-तू बड़ी हत्यारिन हैं कलिया। क्या उसे मार ही डालेगी?

सिलिया बाप के पैरों से लिपटकर बोली-मार डालो दादा, सब जने मिलकर मार डालो। हाय अम्मां, तुम इतनी निर्दयी हो, इसीलिए दूध पिलाकर पाला था? सौर में ही क्यों न गला घोंट दिया? हाय। मेरे पीछे पंडित को भी तुमने भिरस्ट कर दिया। उसका धरम लेकर तुम्हें क्या मिला? अब तो वह भी मुझे न पूछेगा। लेकिन पूछे न पूछे, रहूंगी तो उसी के साथ। वह मुझे चाहे भूखों रखे, चाहे मार डाले, पर उसका साथ न छोड़ूंगी। उसकी इतनी सांसत कराके कैसे छोड़ दूं? मर जाऊंगी, पर हरजाई न बनूंगी। एक बार जिसने बांह पकड़ ली, उसी की रहूंगी।

कलिया ने होठ चबाकर कहा-जाने दो रांड को। समझती है, वह इसका निबाह करेगा, मगर आज ही मारकर भगा न दे तो मुंह न दिखाऊं।

भाइयों को भी दया आ गई। सिलिया को वहीं छोड़कर सब-के-सब चले गए। तब वह धीरे-से उठकर लंगड़ाती, कराहती, खलिहान में आकर बैठ गई और अंचल में मुंह ढांपकर रोने लगी। दातादीन ने जुलाहे का गुस्सा डाढ़ी पर उतारा-उनके साथ चली क्यों न गई सिलिया। अब क्या करवाने पर लगी हुई है? मेरा सत्यानास करके भी न पेट नहीं भरा।

सिलिया ने आंसू-भरी आंखें ऊपर उठाई। उनमें सेज की झलक थी।

'उनके साथ क्यों जाऊं? जिसने बांह पकड़ी है, उसके साथ रहूंगी।'

पंडितजी ने धमकी दी-मेरे घर में पांव रखा, तो लातों से बात करूंगा।

सिलिया ने उद्दंडता से कहा-मुझे जहां वह रखेंगे, वहां रहूंगी। पेड़ तले रखें चाहे महल में रखें।

मातादीन संज्ञाहीन-सा बैठा था। दोपहर होने को आ रहा था। धूप पत्तियों से छन छनकर उसके चेहरे पर पड़ रही थी। माथे से पसीना टपक रहा था। पर वह मौन, निस्पंद बैठा हुआ था।

सहसा जैसे उसने होश में आकर कहा-मेरे लिए अब क्या कहते हो दादा?