दातादीन ने उसके सिर पर हाथ रखकर ढाढस देते हुए कहा-तुम्हारे लिए अभी मैं क्या कहूं बेटा? चलकर नहाओ,खाओ, फिर पंडितों की जैसी व्यवस्था होगी, वैसा किया जाएगा। हां, एक बात है, सिलिया को त्यागना पड़ेगा।
मातादीन ने सिलिया की ओर रक्त-भरे नेत्रों से देखा—मैं अब उसका कभी मुंह न देखूंगा, लेकिन परासचित हो जाने पर फिर तो कोई दोस न रहेगा?
'परासचित हो जाने पर कोई दोस-पाप नहीं रहता।'
'तो आज ही पंडितों के पास जाओ।'
'आज ही जाऊंगा बेटा।'
'लेकिन पंडित लोग कहें कि इसका परासचित नहीं हो सकता, तब?'
'उनकी जैसी इच्छा।'
'तो तुम मुझे घर से निकाल दोगे?'
दातादीन ने पुत्र-स्नेह से विह्वल होकर कहा-ऐसा कहीं हो सकता है, बेटा। धन जाय, धरम जाय, लोक-मरजाद जाय, पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता।
मातादीन ने लकड़ी उठाई और बाप के पीछे-पीछे घर चला। सिलिया भी उठी और लंगड़ाती हुई उसके पीछे हो ली।
मातादीन ने पीछे फिरकर निर्मम स्वर में कहा-मेरे साथ मत आ। मेरा तुझमे कोई वास्ता नहीं। इतनी सांसत रचा के भी तेरा पेट नहीं भरता।
सिलिया ने धृष्टता के साथ उसका हाथ पकड़कर कहा-वास्ता कैसे नहीं है? इसी गांव में तुमसे धनी, तुमसे सुंदर, तुमसे इज्जतदार लोग हैं। मैं उनका हाथ क्यों नहीं पकड़ती? तुम्हारी यह दुरदसा ही आज क्यों हुई? जो रस्सी तुम्हारे गले पड़ गई है, उसे तुम लाख चाहो, नहीं तोड़ सकते। और न मैं तुम्हें छोड़कर कहीं जाऊंगी। मजूरी करूंगी, भीख मांगूगी, लेकिन तुम्हें न छोड़ूंगी।
यह कहते हुए उसने मातादीन का हाथ छोड़ दिया और फिर खलिहान में जाकर अनाज ओसाने लगी। होरी अभी तक वहां अनाज मड़ रहा था। धनिया उसे भोजन करने के लिए बुलाने आई थी। होरी ने बैलों को पैरे से बाहर निकालकर एक पेड़ में बांध दिया और सिलिया से बोला-तू भी जा, खा-पी आ सिलिया। धनिया यहां बैठी है। तेरी पीठ पर की साड़ी तो लहू से रंग गई है रे। कहीं घाव पक न जाय। तेरे घर वाले बड़े निरदयी हैं।
सिलिया ने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा-यहां निरदयी कौन नहीं हैं, दादा। मैंने तो किसी को दयावान् नहीं पाया।
'क्या कहा पंडित ने?'
'कहते हैं, मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं।'
'अच्छा। ऐसा कहते हैं।'
'समझते होंगे, इस तरह अपने मुंह की लाली रख लेंगे, लेकिन जिस बात को दुनिया जानती है, उसे कैसे छिपा लेंगे? मेरी रोटियां भारी हैं, न दें। मेरे लिए क्या? मजूरी अब भी करती हूं, तब भी करूंगी। सोने को हाथ-भर जगह तुम्हीं से मागूंगी तो क्या तुम न दोगे?'
धनिया दयार्द्र होकर बोली-जगह की कौन कमी है बेटी? तू चल मेरे घर रह।
होरी ने कातर स्वर में कहा-बुलाती तो है, लेकिन पंडित को जानती नहीं?