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260 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

वह उसी तरह बड़ी देर तक गोबर का मुंह देखती रही। वह क्षीण होती हुई आशा से जीवन का कोई लक्षण पा लेना चाहती थी। और प्रतिक्षण उसका धैर्य अस्त होने वाले सूर्य की भांति डूबता जाता था, और भविष्य में अंधकार उसे अपने अंदर समेटे लेता था।

सहसा चुहिया ने आकर पुकारा गोबर का क्या हाल है, बहू| मैंने तो अभी सुना। दुकान से दौड़ी आई हूं।

झुनिया के रुके हुए आंसू उबल पड़े, कुछ बोल न सकी। भयभीत आंखों से चुहिया की ओर देखा।

चुहिया ने गोबर का मुंह देखा, उसकी छाती पर हाथ रखा, और आश्वासन-भरे स्वर में बोली-यह चार दिन में अच्छे हो जाएंगे। घबड़ा मत। कुशल हुई। तेरा सोहाग बलवान था। कई आदमी उसी दंगे में मर गए। घर में कुछ रुपये-पैसे हैं?

झुनिया ने लज्जा से सिर हिला दिया।

'मैं लाए देती हूं। थोड़ा सा दूध लाकर गरम कर ले।'

झुनिया ने उसके पांव पकड़कर कहा-दीदी, तुम्हीं मेरी माता हो। मेरा दूसरा कोई नहीं है।

जाड़ों की उदास संध्या आज और भी उदास मालूम हो रही थी। झुनिया ने चूल्हा जलाया और दूध उबालने लगी। चुहिया बरामदे में बच्चे को लिए खिला रही थी।

सहसा झुनिया भारी कंठ से बोली-मैं बड़ी अभागिन हूं दीदी। मेरे मन में ऐसा आ रहा है, जैसे मेरे ही कारण इनकी यह दसा हुई है। जी कुढ़ता है तब मन दु:खी होता ही है, फिर गालियां भी निकलती हैं, सराप भी निकलता है। कौन जाने मेरी गालियों...

इसके आगे वह कुछ न कह सकी, आवाज आंसुओं के रेले में बह गई। चुहिया ने अंचल से उसके आंसू पोंछते हुए कहा-कैसी बातें सोचती है बेटी। यह तेरे सिन्दूर का भाग है कि यह बच गए। मगर हां, इतना है कि आपस में लड़ाई हो, तो मुंह से चाहे जितना बक ले, मन में कीना न पाले। बीज अन्दर पड़ा, तो अंखुआ निकले बिना नहीं रहता।

झुनिया ने कंपन-भरे स्वर में पूछा-अब मैं क्या करूं दीदी?

चुहिया ने ढाढ़स दिया-कुछ नहीं बेटी। भगवान् का नाम ले। वही गरीबों की रक्षा करते हैं।

उसी समय गोबर ने आंखें खोलीं और झुनिया को सामने देखकर याचना भाव से क्षीण-स्वर में बोला-आज बहुत चोट खा गया झुनिया। मैं किसी से कुछ नहीं बोला। सबों ने अनायास मुझे मारा। कहा-सुना माफ कर। तुझे सताया था, उसी का यह फल मिला। थोड़ी देर का और मेहमान हूं। अब न बचूंगा। मारे दरद के सारी देह फटी जाती है।

चुहिया ने अन्दर आकर कहा-चुपचाप पड़े रहो। बोलो-चालो नहीं। मरोगे नहीं, इसका मेरा जुम्मा।

गोबर के मुख पर आशा की रेखा झलक पड़ी। बोला-सच कहती हो, मैं मरूंगा नहीं?

'हाँ, नहीं मरोगे। तुम्हें हुआ क्या है? जरा सिर में चोट आ गई है और हाथ की हड्डी उतर गयी है। ऐसी चोटें मरदों को रोज ही लगा करती हैं। इन चोटों से कोई नहीं मरता।'

'अब मैं झुनिया को कभी न मारूंगा।'

'डरते होगे कि कहीं झुनिया तुम्हें न मारे।'

'वह मारेगी भी, तो न बोलूंगा।'