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पृष्ठ:गोदान.pdf/३५

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गोदान : 35
 


तुम भले मानुस हो, हंसकर टाल गए , दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया, तो कितनी आबरू रह जायगी, बताओ।
इस खयाल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला--अरे हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीसकर पी जाओगे?
हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे-सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेता; लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका। चौधरी की ओर देखकर बोला -- अब खड़े क्या ताकते हो। जाकर अपने बांस काटो। मैंने सही कर दिया। पन्द्रह रुपए सैकड़े में तय है।
कहां तो पुन्नी रो रही थी। कहां झमककर उठी और अपना सिर पीटकर बोली -- लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना है। भाग फूट गया कि तुम-जैसी कसाई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग।
उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली। हीरा गरजा -- वहां कहां जाती है , चल कुएं पर, नहीं खून पी जाऊंगा।
पुनिया के पांव रुक गए । इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठाकर रोती हुई कुएं की ओर चली। हीरा भी पीछे-पीछे चला।
होरी ने कहा -- अब फिर मार-धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है।
धनिया ने द्वार पर आकर हांक लगायी -- तुम वहां खड़े-खड़े क्या तमाशा देख रहे हो। कोई तुम्हारी सुनता भी है कि यों ही शिक्षा दे रहे हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें घूंघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था, भूल गये। बहुरिया होकर पराए मरदों से लड़ेगी, तो डांटी न जायेगी।
होरी द्वार पर आकर नटखटपन के साथ बोला -- और जो मैं इसी तरह तुझे मारूं?
'क्या कभी मारा नहीं है, जो मारने की साध बनी हुई है?'
'इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़कर भाग जाती। पुनिया बड़ी गमखोर है।'
'ओहो। ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने खाली मारना सीखा, दुलार करना सीखा ही नहीं। मैं ही ऐसी हूं कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ।'
'अच्छा रहने दे, बहुत अपना बखान न कर। तू ही रूठ-रूठकर नैहर भागती थी।'
'जब महीनों खुशामद करता था, तब जाकर आती थी।'
'जब अपनी गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला। मेरे दुलार से नहीं जाते थे।'
'इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूं ।'
वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं, और पृथ्वी कांपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय सन्ध्या आती है, शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भांति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी