गोरख-बानी] ६१ गगन सिषर भाछै अंबर पाणीं। मरतां मूढां लोकां मरम न जाणीं ।३। पूनिम महिला चंदा जिम नारी संगै रहणां । ग्यांन रतन हरि लोन्ह परांणां ।४। आदि नाथ नाती मछिंद्र नाथ पूता। व्यंद तोले राषीले गोरष अवधूता५ ।५।।५॥ सोना ल्यौ रस सोना ल्यौ, मेरी जाति सुनारी रे। धंमणि धमी रस जांमणि जाम्या, तब गगन महा रस मिलियारे॥ टेक ॥ आ सोनां नै आप सुनारी', मूल चक्र अंगीठा । अहरणि नाद नै व्यंदा 'हथौड़ा, घटिस्यू१२ गगन बईठा५३ । १ । गगन सिषर-त्रिकुटी, ब्रह्मरंध्र अथवा ऊँची पहुँच या ब्रह्मानुभूति में । पाणी = अमृत । मूढां मूढ । पूनिम... पूर्णिमा का चंद्रमा अपना संपूर्ण अमृत दान करता रहता है, (जो योग-युक्ति के बिना मूलाधार स्थित सूर्य के द्वारा सोख लिया जाता है। ) परिणाम यह होता है कि वह क्षीण होता चला जाता है । स्त्री के साथ रहकर भी पुरुष को, जो वस्तुतः पूर्ण है, यही हालत होती है, महिला-में-का, मध्य का ॥ ५ ॥ मैं जाति का सुनार हूँ । मुझ से रस (प्रात्मानंद, अमृत) रूप सोना लो। धर्मणि (धौंकनी श्वास क्रिया ) को धौंका, श्वास क्रिया के द्वारा अजपाजाप सिद्ध किया। यही रस का जमना है । अजपाजा के द्वारा चंचल मन स्थिर हो जाता है । इसी से फिर ब्रह्मरंध्र में महारस योगामृत को प्राप्ति होती है ।टेक!! घटिस्यूगदगा। १. (घ) मरता मूढा लोका पवरि न जांणी । २. पून्यू मैंला । ३. (घ) लीया पुरांणां । ४. (घ) कोटि तोला विंदे राषै । ५. (घ) औधूता । ६. (घ) धमनि जामनि जाम्यां । ७. (घ) गिगनि। ८. (घ) मिलीयारे । ६. (क) जास्यों; (घ) आपै सुनारी आपै सोना । १०. (क) अहर्णि । ११. (घ) बिंद। १२. (घ) तब घड़ि स्यू। १३. (क) वईठा।
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