पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६६ गोरख-बानी] नार्दै लीन ब्रह्मा नार्दै लीना नर हरि, नार्दै लीना ऊमापती जोग ल्यौ धरि धरि । नाद ही तो आछ बाबू सब कछू निधांनां3, नाद ही थें पाइये परम निरवांनां ॥२॥ बाई बाजे बाई गाजे बाई धुनि करै, बाई षट चक्र वेधै अरधैं उरधैं मधि फिरै। सोहवाई हसा रूपी प्यडै बहै, बाई के प्रसादि व्यंद गुरमुष रहै ॥३॥ मन मारै मन मरै मन तारै मन तिरै। मन जै० अस्थिर होइ१ तृभुवन१२ भरै। मन आदि मन अंत 3 भन मधे सार१४ मन ही ३५ छुटै बाबू विष विकार१६ ॥४॥ ( सृष्टि की ) धारा छूटी है । ॐकार सारे संसार में व्याप रहा है। कार नामि ( स्वाधिष्ठान में और हृदय अनाहत, षोड़श या द्वादश कमल चक्र ) में निवास करता है । ॐकार ही देवता है, ॐकार ही गुरु । ॐकार को साधे बिना सिद्ध नहीं होती है। मूल कार के अभिव्यक्त रूप नाद ही में ब्रह्मा, विष्णु और महादेव लीन हैं । सहेज कर अच्छी तरह इसकी रक्षा करो (अथवा नाद को धर धर-सम्हाल कर योग प्राप्त करो) (क्योंकि) नाद ही सब कुछ का घर वही वायु का शब्द है। पट चक्रों को वेध कर वायु ऊपर नीचे और मध्य में सर्वत्र फिरती रहती है। 'सोऽहं हंस' मंत्र रूप यह वायु प्रत्येक शरीर में प्रवाहित होती रहती है। वायु के प्रसाद से बिंदु (शुक्र ) गुरु मुख (भिक्षा) में शथवा (ब्रह्मरन्ध्र ) में स्थिर हो जाता है। १. (घ) नादे २. (घ) ऊमापति । ३. (घ) ध्यान । ४. (घ) नादै हो तें ५. (क) नृबांना; (घ) पाईए परम निघांनां । ६. (घ) ए बाई । ७. (क) में नहीं; (घ) अरध उरध मधि फिरै । ८. (घ) बाय । ६. (घ) पिंडे पिंडे । १०. (घ) विंद । ११. (घ) मुपि। १२. (घ) मन ही जौ । १३. (घ) होय । १४. (घ) त्रिभवण । १५. (घ) अति । १६ (घ) मधे सारं । १७. (घ) थें । १८. (घ) सकल विकारं। , Thio