पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१५२

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११६ गोरख-बानी] सिष्टि उत्तपनी वेली' प्रकास, मूल न थी, चढ़ी आकास, उरध गोढ कियौ विसतार, जाण नै जोसी करै विचार"। १ । आईसौ भील पारधी हाथ नहीं,पाई प्यंगुलो मुष दांत न काहीं' इयों हयों "मृघली धुणही न तहीं११,घंटा सुर तिहारनाद नाहीं. ३ १२१ भीलडै तिहां१४ ताणियौ'५ बांण मन ही मृघलौ बेधियौ प्रमाण । हयौ हयौ मृगली वेधियौ बांण१७, धुण ही वांण न थी सर ताण ॥३॥ भीलड़ी मातंगी रांणी१८, मृघलौ आणी ठाणी १९ ॥ चरण२०विहूँणों मृघलौं आण्यौं सीस सींग मुष जाइ२२न जाण्यौ२३।४ (मुक्ति रूप मुक्ता) भी इसी बेल पर (लगते) हैं । इसी वेल के प्रकाश (विस्तार से सृष्टि उत्पन्न हुई है। इस बेल का मूल नहीं है ( वास्तव में वह सत्य नहीं मिथ्या है) फिर भी वह श्राकाश तक चढ़ गई है। ऊपर की गोठ (गोस्थान) तक (ब्रह्मरंध्र तक ) उसका विस्तार हो गया है (जिससे ब्रह्मानुभूति पर अावरण पढ़ गया है। ) हे जानने वाले ज्योतिपियो इस बात पर विचार करो। एक ऐसा भील (श्रामा ) शिकारी है, जिसके हाथ नहीं हैं । पाँवों का पंगु है। उसके मुख में कहीं दाँत भी नहीं हैं। ( मांस खाने के लिए शिकारी के मुख में दोत चाहिए ।) उसके पास धनुप (धनुही, धुणही) भी नहीं है। फिर भी उसने मृग (मन) को मार डाला। मृगों को वश में करने के लिए न उसके पास कोई सुर (सुरीला राग) है। और न हाँक के लिए कोई नाद या घंटा श्रादि का शब्द ही। फिर भी भील ने बाण ताना और इच्छा करते ही (मन ही से) मृग को प्रामाणिक रूप से वेध दिया। बाण ने मृग को वेध दिया । वह मारा गया, मारा गया, जो शर उसने ताना था, वह भी दाण नहीं था अर्थात् बिना धनुष १. (घ) उतपनी वेलि । २. (घ) कीयौ बिस्तार । ३. (घ) नांणे नैं । ४(घ) जोगी। ५. (घ) करौ बिचार । ६, (घ) ऐसौ । ७. (घ) पाव । ८. (घ) पिंगुल ६. (घ) 'न काही के स्थान पर 'नाहीं ।' १०. (घ) हयौ हयौ । ११. (घ) नाही"नाही । १२. (घ) सुरति तहां । १३. (घ) तहां । १४. (घ) काणीणी- यौ। १५. (घ) वेधी प्राण । १६. (घ) वेधीयौ । १७. (घ) रांणी । २८. (घ) आणीयौ ठांणी । १६. (घ) चलण । २० (घ) बिहुणो भृघलौ आंण्यौ । २१. (घ) जाय । २२. (घ) जाण्यौ ।