पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१५३

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43 १२० [गोरस्त्र-वानी भणत गोरपनाथ मछिंद्र नां' पूता, मारथो मृध भया अवधूता। याहि हियाली जे कोई वृमी, ता जोगी की तृभुवन" सूमै ।५ ॥२६॥ अवधू ऐसा नम हमारा, तिहाँ जोवी ऊजू द्वारं । अरघ उरघ बजार मड्या है, गोरप कहै विचारं॥ टेक ॥ हरि प्रांगण पातिसाह, साह विचार काजी। पंच तत ते उजहदारं मन पवन दोऊ हस्ती घोड़ा गिनांन ते अपै भंडारं।१। काया हमारे सहर बोलिये 3, मन बोलिये हुज दार। चेतन१४ पहरै कोटवाल बोलिये, तो चार न म के द्वार।२। तोनिसै साठि चौरा गढ़ा५रचील, सोलह पणिलै पाई। नव दरवाजा प्रगट दीसै, दसवां लप्या न जाई । ३ । के एनुप से दिना पाय के बाण द्वारा ग्याधे ने मृग (मन) को मार दिया। मदमाती मीलनी रानी उस चरण दीन मृग को अपने स्थान पर ले श्रायो । टस सिर, माग और पूछ कुछ नहीं जाने जाते थे। मनवर का शिष्य गोरख कहता है कि मारा हुमा मृग (मन) अवधून (विर योगी ) हो गया। इस को हदय में जो कोई समझ जायगा, उसको ग्रिभुवन का ज्ञान हो जायगा ॥२६ पवधूत ! हमारे नगर का यह जो द्वार है टसे दनी । गोरम इस बात को विचार वंक रहता है, हमारा ऐसा नगर है कि उसमें स्वास-प्रश्यास (ग्राप दरप) का बाजार सजाना है। प्राणों के स्वामी हरि ( मम ) गों 2. राना (शाद), विगार कानी है, पंच तस्य बजीर हैं । मन पपन हापो पाई है । शान मदाम्य भंडार (कार) है। यह नगर काया का नगर है, मन है, मंग दुमा कोतवान है। (परि वारंवारी होती रहे) तो गार करना ना भी नहीं सकता। पार नगर पद मा तीन सौ माहीर परों से निर्मित है। माम पोगियों को हिरामशिरोर में : हरिगों मूस गमावली अन् । म आधार (वय का पांगहा, मा, गदा, मे. टपान, मामि, प, कंग, १. (१)ना। २. () मारा। ३.(4) cिा। ४. (प) का । ५. (५) (4)हमा. ()ी। ८.(Mith. (५) यो नि। १.. (4) पगा८ । ११. (५) उला। १२. (५)। .: (ोग १४. (:)) १५. (4)। oko धेनन्ग पहरे पर ,