नरवै बोध . सुणौ हो नरवै सुधि बुधि का विचार । पंच तत ले उतपनां सकल संसार। पहलै प्रारम्भ घट परचा करौनिसपती । नरवैबोधकथंत श्रीगोरष जती॥१॥ पहलै प्रारम्भ, छाड़ौ काम क्रोध अहंकार | मन माया विष बिकार। हंसा पकड़ि घात जिनि करो । तस्ना तजो लोभ परहरौ ॥२॥ छोड़ी दंद रहो निरदंद। तजौ अल्यंगन रहो अबंध । सहज जुगति ले सण करो। तन मन पवनां दिढ कार धरौ ॥३॥ नरवै नृपति, राजा । आरम्भ, घट, परचा (परिचय), निसपती (निष्पत्ति ) योग की क्रमशः चार अवस्थाएँ ॥३॥ हंसा-जीव, प्राणी ॥२॥ अन्यंगन-श्रालिंगन, यहाँ पर, काम भावना ॥३॥ नरबै बोध (क), (घ) और (अ) के आधार पर । १. (घ) में प्रारम्भ में इतना अधिक है. 'प्रबिछयामी च्यारि अवस्था सहते । च्यारि अवस्था जोग के नाम । कथितं प्रथमे आरंभ जोग । दुतीए घट जोग त्रितीए परचयां जोग । चतुरथे निसपती जोग । इती च्यारि अवस्था, कथितं श्रीगोरपनाय, सुयो हो नरवै राजिंद्र। प्रयमे प्रारम्भ जोग लछिण, कथितं श्रव भ्रम दुरंगता । श्रीगोरपोवाच- (अ) संस्कृत अनुवाद भी (घ) के अनुकूल है। २. (क) स्वामी । ३. (घ) में इसके बाद 'असार सतगुर कयीला काया का विचार' । अधिक है । ४. (घ) उपनां । ५.(घ) नाथ कथीला श्रात्मा सारं ७॥ ६. (घ) पहलो। ७.(१) करौ घट परचै। ८. (प) नरवै पुराण । ६. (घ) में इसके पहले इतना और है-'सतपुत्र सत का विचार', (क) में इस चरण में पहले के स्थान पर 'जै है। १०. (घ) में इसके आगे इतना और है --'काल पासि महामोह निवारि । ११. (घ) आलिंगण ।
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