गोरख-बानी] १८६ गोरष-स्वामी बस मन कहां बसै पवन । कहां वसै सबद कहां वसै चंद। कौण असथाने ए वत रहै । सतगुर होय स पूछयां कहै २ ॥२५॥ मछिद्र-अवधू हिरदै बसै मन नाभी वसै पवन, रूप बसै सबद गगन बस चंद । उरध सशांने ए तत रहै। ऐसा विचार मछिन्द कहे। ॥२६॥ गोरष स्वामी हिरदैन होता, तब कहां रहिता मन५ । नाभि न होती तव कहां रहिता पवन ॥ रूप न होता तब कहां रहिता सबद, गगन न होता तब कहां रहिता चद ।। २७ ॥ मछिंद्र-अवधू हिरदा न होता तब सुनि रहिता मन । नाभी न होती तब निराकार रहिता पवन ।। रूप न होता तब अकुन्तान रहिता सवद । गगन न होता तब अंतर प रहिता चंद ॥२८॥ गोरध-स्वामी राति न होती दिन कहां थे प्राया। दिन प्रसरथा राति कहां समाया । दिवा बुझानां जोति कहाँ लीया वास। प्यंडन होता तव प्राण का कौंरण येसास ॥ २६ ॥ मछिद्र-श्रवधू राति न होती दिन सहजै पाया, दिन प्रसरथा राति सहज समाया। दिवा बुझांनां जोति निरन्तर रेलीया बास'3, प्यंड न होता तब प्राण का मुनि बेसास ३ ॥३०॥ १. (क) सन्द । २. अन्तिम दोनों चरण (क) में नहीं है । ३. (क) हृदै। ४. (घ) होता । ५. (५) मन। ६. (घ) रूपे। ७. (प) निरलंकार । ८. (ष) सुनि। ६.(घ) रात्री। १०. (घ) प्रकासै; (क) प्रसन्यां। ११. (घ) पिण्ड । १२. (क) निरन्तर । १३. (५) बासा...वेशासा । 7
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