पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१3 १२ १४ २०० [गोरख-बानी मछिंद्र-अवधू सुरति सो'साधिकरसबद सो सिधि । आप सों माया पर सो रिधि । दुहुँ को मेटि निरति मैं रहै । ऐसा विचार मछिंद्र कहे ॥१०॥ गोरष-स्वामी कोण सो सांचा कौण सो रांग । कौण प्राभूषण च सुरंग ता निहचल' कैस रहै । सतगुर होइ सुबूमयां कहै ।।१०।। मछिंद्र-अवधू ग्यांन सो सांचा प्राण सो रङ्ग', जता आभूषण चढ़े सुरङ्ग । तामहि निहचल सनमनरहै। ऐसा बिचार मछिद्र कहै ॥११०॥ गोरष-स्वामी कोण सोमंदिर २ौण सो देव। कहां वैसि करि कीजै सेवा कौण सो पाती किहि विध रहै, सतगुर होइ सुबूझयां कहै।।१११॥ मछिन्द्र-अवधू सुनि सो मंदिर मन सो देव। बैसि निरंतर कीजै सेव । पांचों पाती चनमनि रहै। ऐसा विचार मछिंद्र कहै ॥११२॥ गोरप-स्वामी कौंण सो मंदिर कोण सो द्वार ।ौण सो मूरति कौण अपार कौण रूप मन उनमनपरहै । सतगुर होइ सुझ्या कहै ॥११३।। मछिंद्र-अवधू सुनि सो५ मंदिर'२ सबद सो द्वार । जोति सो मूरति ज्वाला अपार । रूप अरूप मन उनमनि रहै । ऐसा विचार मछिंद्र कहै ॥११॥ गोरप-स्वामी कोण सो दीवा कोण प्रकास । कोण वाती तेल निवास । फैसे दीवा अविचल रहै । सतगुर होइ सु घुमयां कहै ॥११५|| १. (प) 'सो' नहीं । २. (घ) समाधिक । ३. (घ) परा । ४. (घ) में अंतिम दो चरण इस प्रकार हैं-दहूँ के मेटै भ्रांति नसाय । ऐसा वचन कहे गुरराय ।। ५. (प) निति । ६. (१) माचा । ७. (घ) रंग। ८. (क) स्वामि । ९. (१) (घ) जोति । ११. (प) उनमनि । १२. (घ) मिंदर । १३.(प) 'किहि विधि' के स्थान पर 'कैसें । १४. (घ) वैठि । १५. (क) में नहीं है । ९५. (५) अरूप रूप । १७. (क) विचार । १८. (प) निहिचल । १२ निहिचल । १..