पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२४४

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२०१ - गोरख-बानी] मछिंद्र--अवधूग्यांनसो' दीवा सयद प्रकास । संतोप'वाती तेल निवास दुयभ्या मेटि अर्षदित रहै। ऐसा विचार मछिद् कहे ॥११६॥ गोरष-स्वामी कौंण सो बैठा कोण सो चल्या, कोण सोरफिरथा कोण सो मिल्या। कोण सो' परि मैं निरभैरहै। सतगुर होइ सुचूमयां कहै ॥११७॥ मछिंद्र-अवधू धीरज बैठा चल्या विकार । सुरति सो फिरचार मिल्या सोइ सार । सदा प्रतीत घरि निरभैरहै । ऐसा विचार मछिंद्र कहै ॥११॥ गोरष-स्वामी कोण सो'जोगी कैसे रहै। कोण सो' मोगी कैसे नहै। सुप मैं कैसे उपजै पीर । तामैं कौन बंधावै धीर ।।११९॥ मछिद्र-अवधू मन जोगी जै उनमनि रहै। उपजै महारस सब सुष लहै। रस ही माहिं अषंडित' पोर । सतगुर सबद पंधावै धीर ॥१२० गोरष-स्वामी कौण सुप्रिआत्मां आवे जाइ।कौंण सु'प्रात्मा रहै समाइ कोण सो' आत्मां त्रिभुवन थोर । कौंण परचे वाचन चार ॥१२॥ मछिंद्र-अवधू पवन सो' श्रात्मां आवै जाइ, मन सो' आत्मां सुनि समाइ। ग्यांन सो आत्मा त्रिभुवन' थीर, सबद:५परचै वांवन ४ बीर ॥१२२॥ गोरष-स्वामी मन का कौंण जीव, जीव का कौण बेसास। वेसास का कौंण आधार, आधार का कौंण रूप ॥१२३॥ १२ १३ १ १. (घ) स । २. (घ) में नहीं । ३. (क) भै। ४. (घ) बैठा धीरज । ५. (घ) सु । ६. (क) फिरि । ७. (घ) स् । ८. (क) कैसे ! ९. (क) जे । १०, (घ) ही माहि अपिडत । ११. (क) सतगुर होइ । १२. (घ) त्रिमवन । १२. (घ) कोण मा। १४. (क) पावन । १५. (प) गुरु ।