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पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२४५

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[ गोरख-बानी मछिद्र-अवधू मन का पवन जीव, पवन का सुनि' बेसासरे। सासर का ब्रह्म प्राधार', ब्रह्म का अध्यंत रूप ॥१२४॥ गोरष-स्वामी कौंण चक्र थिर होवै' कंध । कौंण चक्र अगोचर बंध । कौंण चक्र में हसं निरोधे । कौंण चक्र मैं मन परमोधै। कौण चक्र में लहै सवाद । कौंण चक्र मैं लागै समाध ॥१२५॥ मछिंद्र-अवधू मूल चक्र थिर होवै कंद । गुदा चक्र अगोचर बंध । मणि११चक्र मैं हसं निरोधै। अनहद चक्र मैं चित परमोधे ।। विसुध चक्र मैं लहै सवाद । चंद्र'४चक्र मैं लागै समाध' ॥१२६॥ गोरप-ए षटचक्र का जाणे भेव । सो आपै करता आप देव । मन पवन साधै ते जोगी। जुरा पत्नटै काया होइ निरोगी ॥१२७॥ पापे न लिप्यते पुन्ये न इरते नमो सिवाइ ॐ नमो सिवाइ। श्रीमछिंद्रनाथ पादुका नमस्तते । - १. (क) नुनि । २. (क) श्राधार । ३. (घ) सुनि । ४. (क) वेसास । ५. (घ) अचित । ६. (घ) पिरि है। ७. (घ) चक्र में । ८. (क) प्रमोभै । १. (८) न्याद । १.. (4) समाधि । ११. (क) मनि । १२. (क) हंसा । १३. (८) अनादर । १४. (प) चंद।