पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/२७७

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२३२ [गोरख-बानी गो०-स्वामी कौंन तत तुम रहौ समाई, कौंन तत तुम मधे आई । कौन परचै तुम्हें कहियै भेव, गोरष कहै सुणौ दतदेव ॥४७|| द०-अवधू दत्त जु लागा तत्त सों, तत्त दत्त ही माहि। दत्त तत्त परचा भया', तब दूजा कहणां नाहिं ।।४।। गो०-स्वामीं त्वमेव दत्तं, त्वमेव देवं, आद मधे तुम्हें जान्या भेवं । तुम्हें नारायण तुम्ह कृपाल, तुम्ह हो सकल बिस्व के पाल ॥५०॥ द०-स्वामी तुमेव गोरष तुमेव रछिपाल२, अनंत सिधां माहीं तुम्हें भोपाल । तुम हो स्यंभू नाथ नृबांण, प्रणवे दत्त गोरष प्रणांम ॥५१॥ मो०-स्वामी दरसण तुम्हारा देव, आदि अंति मधि पाया भेव । गोरष भणई दत्त प्रणांम, भोग जोग परम निधान ॥५२।। 3 ज्ञान दीप बोध ग्रंथ, जोग सास्त्र', पढ़ते हर ते पापं, श्रुत्वा मोषि लभ्यते जोगारम्भ भवेसिधा आवागवन निवरतते । येवं ग्यांन दीप बोध संबादे जोग सास्त्र सपूरण समाप्त । ॐ नमो सिवाये ॐ नमो सिवाये गुरु मछिंद्र पादुका नमस्तते । १. (घ) हया । २. (क) साका सिपाल ।