पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/३७

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[गोरख-ब। चालत चंदवा पिसि षिसि पड़े। बैठा ब्रह्म प्रगनि परजलैर आडै आसणि3 गोटिका बंध । जावत प्रथिमी" तावत कंध ॥४९ यहु मन सकती यहुमन सीव । यहु मन पांच तत्त का जी यह मन ले जै उन मन रहै। तो तीनि लोक की वानां कहै १२॥५ तत्व की कंथा बनाई है। वह क्षमा का खदासन, ज्ञान की अधारी, सबु। को सदाऊँ और विचार का ठंडा उपयोग में जाता है। काठ के डंडे में हुए पोदे को अधारी कहते हैं जिसे योगी, साधु सहारे के लिए रखते हैं । प्रकार का खड़ासन भी होता है निसके सहारे खड़े खड़े बैठने का सा: मिलता है। शरीर का नहीं मन का योग वास्तविक योग है। वाद्य युति को छोड़कर श्राभ्यंतर युक्तियों को ग्रहण करना चाहिए ॥४८॥ चंचलता से (चालत ) चंद्र नाव (अमृत) खिसक खिसक कर क्ष हो जाता है। स्थिरता से (बैठा ) ब्रह्माग्नि प्रज्वलित होती है। ति (अर्थात् चल और स्थिर के बीच की) अवस्था में [श्रादि ] के श्रम से वह सिद्धि (गोटिका बंध ) प्राप्त होती है जिससे योगी इच्छानु श्रदरय हो जाता है [ कहते हैं कि सिद्ध योगी अभिमंत्रित गोली (गुटिक मुंह में रखकर अदृश्य हो जाता है ] और अमरत्व प्राप्त कर लेता है जि जब तक पृथ्वी रहती है तब तक उसका शरीर (स्कध-कंध) भी र है ॥४॥ यही मन शिव है, यही मन शक्ति है, यही मन पंच तत्वों से नि जीव है, ( मन का अधिष्ठान भी शिवतत्व परब्रह्म ही है । माया (शक्ति संयोग से ही ब्रह्म मन के रूप में अमिम्यक्त होता है और मन ही से मृतात्मक शरीर की सृष्टि होती है। इस लिए मन का यहुत बड़ा महत्व है मन को लेकर उन्मनावस्था में लीन करने से साधक सर्वज्ञ हो जाता है, नोकों को पाते का सकता है ॥५०॥ १. (क) जावत (ख) चलता। २. (ग) परै परजरे । ३. (क) श्रा (ख) पासण | ४. (घ) गुटिका । ५. (ख) प्रथमी, (क) पृथी, (घ) प्रियर ६. (स) यी हु; (ग) यौ हूँ। ७. (घ) सक्ती। ८. (क) पँच तत (ग) तच । ९. (ख) को, (घ) की। १०.(क), (ग), (घ) जे। ११. (क) या 2 nd