गोरख-बानी] अवधू नव घाटी रोकि लै बाट२ । बाई बणिजै३ चौसठि हाट । काया पलटै अविचल विध५ । छाया बिबरजित निपजै सिध ॥५०॥ अवधू दंम कौं गहिबा उनमनि रहिवा, ज्यू बाजवा अनहद तुरं । गगन मंडल में तेज, चमकै१२, चंद नहीं तहां सूर ॥५१॥ सास उसास बाइ१3 कौं भषिबा, रोकि लेहु१५ नव द्वार। छठ छमासि काया पलटिबा१६, तब उनमनी जोग अपार ॥५२॥ अवधू सहस्त्र नाड़ी पवन २ चलैगा, कोदि झमकै१९ नादं । बहतरि२० चंदा बाई सोध्या किरणि प्रगटी२५ जब२२ श्रादं ॥५३॥ हे अवधूत ! शरीर के नवों द्वारों को बन्द करके वायु के माने जाने का मार्ग रोक लो। इससे चौसों संधियों में वायु का व्यापार होने लगेगा। इससे निश्चय ही कायाकल्प होगा। और साधक सिद्ध हो जायगा जिसकी छाया नहीं पड़ती ॥१०॥ हे अवधूत, दम (प्राण को पकड़ना चाहिए, के उसे में करना चाहिए। इससे उन्मनावस्था सिद्ध होगी। अनाहत नाद रूपी तुरी बज उठेगी और ब्रह्मरंध्र में बिना सूर्य या चंद्रमा के (ब्रह्म) का प्रकाश चमक उठेगा॥११॥ (केवल कुम्भक द्वारा) श्वासोच्छ्वास का भक्षण करो । नवों द्वारों को रोको। छठे छमासे कायाकल्प के द्वारा काया को नवीन करो। तब उन्मन योग सिद्ध होगा ॥५२॥ रे अवधृत शरीर में फैले हुए सहस्रनाड़ो-जाल में जव पवन का संचार १. (ख) लेबा । २. (ग) (घ) घाट। ३. (ग) वणजे (घ) बिणजे । ४. (ख), (ग) चोसठि; (घ) चौष्ठि। ५, (ख), (ग), (घ) वध । ६. (ख) छाय । ७. (ख), (घ) विबरजत, (ग) विवरज ! ८ (ख), (ग), (घ) दमकू । ९. (क) उनमन (घ) उनमन्य। १०. (ग), (घ) तब । ११. (ख) जोति । १२. (क) (ख), (ग) चमकै । १३. (ग), (घ) बाय । १४. (क) भछिवा । १५. (ख) लेबा (ग) ले (घ) लेह । १६. (ग) (घ) पलटै। १७. (ख) सहंसर; (क) (घ) सहश्र; (ग) सहस्र । १८. (ख), (ग), (घ) हंस । १९. (क) झमका । २०. (क) बहतर; (ख) बहोतरि । २१ (ख), (ग), (घ) प्रगटै। २२, (ग), (घ) में नहीं। प्राणायाम वश
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