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गोरा

गोरा उस जाय" की कहावत चारितार्थ होगी एक मार्ग का अवलम्बन करना ही ठीक है; नहीं तो सत्यकी प्राप्ति न होगी। तुम जिस जगह खड़े होकर आज सत्यकी जिस मूर्ति को आँखों देख रहे हो, मैं मूर्तिका अभिवादन करने के लिए वहाँ तक न पहुँच सकंगा । इसमे मैं अपने जीवनके सत्यको भी खो डालूँगा । इस अोर सत्य और उस ओर असत्य । विनय--- --सत्य तुम्हारी ओर, और असत्य मेरी ओर । में अपने को पूर्ण करना चाहता हूँ और तुम अपना जीवन उत्सर्ग करने के लिए खड़े हो। गोराने कुछ तीव्र होकर कहा--विनय, तुम बात-बात में काव्य मत करो। तुम्हारी बातें सुनकर मैं यह स्पष्ट समझ गया हूँ कि तुम श्राज अपने जीवन में एक प्रबल सत्यके सामने मुँह करके खड़े हुए हो, उसके साथ कपट चल नहीं सकता। सत्यकी रक्षा करनेसे उसके पास आत्म समर्पण करना ही होगा । इसमें अन्यथा हो नहीं सकता । मैं जिस समाज के भीतर हूँ, उस समाजके सत्यको मैं भी एक दिन इसी तरह प्रत्यक्ष देउ, यही मेरी इच्छा है । तुम इतने दिन तक काव्यमें पड़े हुए प्रेमके परिचयसे ही तृप्त थे---मैं भी पुस्तकोंमें उल्लिखित स्वदेश- प्रमको ही जानता हूँ। आज प्रेम जब तुम्हारे पास प्रत्यक्ष हुश्रा तब तुम समझ सके हो कि पुस्तकों में पठित विषयकी अपेक्षा यह कितना सत्य है। उसने तुम्हारे समस्त चराचर जगत्को अधिकारमें कर लिया है, तुम इसके हाथसे अव उद्धार नहीं पा सकते। इसके अधिकारसे बाहर जानेकी अब तुम्हें कोई जगह नहीं है। स्वदेश प्रेम जिस दिन मेरे सामने इस प्रकार पूरे तौर से प्रत्यक्ष होगा उस दिन मेरी मी यही गति होगी मैं भी इसी तरह संसार को एक और रूप में देलूँगा। उस दिन वह मेरे धन- प्राण मेरे मांस, मेरे आकाश-विकाश और मेरे जो कुछ है, सभीको अनायास ही अपनी ओर खींच लेगा । स्वदेश की वह सत्यमूर्ति क्या ही आश्चर्य स्वरूप है। उसके अानन्द ओर विषाद दोनों बड़े ही प्रबल पचंड हैं,