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गोरा

गोरा कर चल सकता है ! किन्तु विनय बाबू में तो यह बात नहीं है । वह गौर बाबूको मानते हैं शायद प्रेमसे ही मगर उसे स्वीकार नहीं कर पाते । यह बातें उनकी बातें सुननेसे ही स्पष्ट समझमें आ जाती है-अच्छा दीदी, तुम यह नहीं समझ थी, सच कहना ? नुचरिताने ललिताकी तरह इस प्रकार यहां तक उस बातको सोचा ही नहीं था, लक्ष्य ही नहीं किया था। कारण गोराको सम्पूर्ण रूपसे जानने के लिए ही उसका कौतूहल व्यन हो रहा था--विनयको गोरासे अलग करके देखने के लिए उसे पात्रह ही नहीं था । सुचरिताने ललिता के प्रश्नका स्पष्ट उत्तर न देकर कहा-अच्छा, अच्छी बात है, तेरी ही बात मैं माने लेती हूँ-तो वता, क्या करना होगा ? ललिता--मेरा जी चाहता है विनय वाबूको बन्धु के बन्धनसे छुड़ा कर स्वाधीन कर दूँ। नुचरिता- अच्छा तो है वहन चेष्टा करके देख न । ललिता-मगर यह काम मेरी चेष्टासे न होगा--तुम जरा मन पर धरो तो जरूर हो सकता है। सुचरिता भीतर-ही-भीतर समझ लिया कि विनय उस पर अनुरक्त है, तो भी उसने ललिता की इस बात को हँसकर उड़ा देनेकी चेष्टा की । ललिता ने कहा--तथापि वह जो गौर बाबूके शासनपाशको ढीला करके तुम्हारे पास इस तरह अपने का आश्रद्ध करने के लिये आते हैं तुम्हारे प्रति आत्म समर्तण का भाव प्रकट करते हैं इसीसे मुझे भले लगते हैं। उनकी अवस्थामें अगर कोई और होता, तो वह अवश्य ही ब्राह्मसमाजी महिलाको भला-त्रुरा कहकर एक नाटक लिख डालता। लेकिन उनका मन अब भी उदार है। इसका प्रमाण यही है कि बाबूजी पर भक्ति रखते हैं और तुम्हें भी चाहते हैं ! सचमुच दीदी विनय बाबूको उनके अपने भावसे खड़ा करना होगा--परावलम्बी और स्वाभिमानी बनाना होगा । वह जो केवल गौर मोहन बाबू का मत फैलाते फिरते हैं उनका गुणगान करते रहते हैं यही मुझे असा जान पड़ता है ?