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१४० ]
गोरा

१४० ] गोरा का नौकर हूँ या उसका केदी हूँ, जो उसकी आज्ञाके अनुसार चलूँगा ? मैं किसीसे मिलूंगा किसीके साथ बात चीत करूँगा; या कहीं जाऊंगा तो क्या मुझे गोरा को इन बातों की कैफियत देनी होगी ? विनय यदि अपनी भीरताको इस प्रकार अपने भीतर स्पष्ट रूपसे न देख पाता तो उसे गोरा और अविनाश के ऊपर इतना क्रोध न होता। गोराके पास वह कोई बात क्षण भरके लिये भी छिपा नहीं सकता, इस- लिए वह बाज मनहीं मन गोराको ही अपराधी बनानेकी चेष्टा कर रहा है। गोराने ही उसे पर-बश बना रक्खा है। मित्रता में ऐसी परवशता क्यों ? सर्कस जानेकी वातके लिए यदि गोरा विनयको दो एक खरी-खोटी बातें सुनाता तो उससे भी मित्रत्व भावकी समता जानकर विनयको सान्त्वना मिलती । किन्तु गोरा गम्भीर भावसे बहुत बड़े विचारकका रूप धारण कर मौन द्वारा विनयका अपमान कर रहा है इससे, ललिताकी बात काँटेकी तरह उसके मनमें चुभने लगी । इतनेमें महिमने कमरे के भीतर प्रवेश किया । पानोंकी डिबियासे एक बीड़ा पान विनयके हाथमें देकर कहा- -विनय, इधर तो सब ठीक है। अव नुम्हारे चाचाके हाथकी चिट्ठी अाने भरकी देर है । वह मिलते ही मैं निश्चिन्त हो जाऊंगा। तुमने तो उनको पत्र लिख ही दिया होमा ? इस विवाह की चर्चा आज विनयको बहुत बुरी लगी, परन्तु वह जानता था कि इसमें महिमका कोई दोष नहीं है । उनको बचन दे दिया गया है। किन्तु वचन देनेके भीतर उसने अपनी एक हीनता समझी। आनन्दमयीने तो उसे एक प्रकार से रोका था-उसका स्वयं भी इस विवाहके प्रति कुछ विशेष भुकाव न था तो यह बात इस प्रकार झट-पट पकी क्योंकर हो गई ? गोराने जल्दी की है, यह भी नहीं कहा जा सकता । विनय यदि किसी तरह अस्वीकृति का भाव दिखाता तो गोरा इसके लिए हठ करता, यह भी सम्भव नहीं, किन्तु तो भी इसी तोभी के ऊपर फिर ललिता की व्यङ्गोक्ति अाकर विनयके मनको दुखाने लगी, मानों वह उसके हृदयके भीतर नश्तरका काम करने लगी। उस दिनकी ।