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गोरा

गोरा [ १४६ गोरा-एक व्यक्ति के श्रादर से जहाँ और सभी व्यक्तियों का विशेष अनादर हो वहाँ उस आदरको हम भारी अपमान में गिनते हैं। यह उत्तर पा हारान बाबू अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे; गोरा उनको ठहर- ठहरकर व.क्य वाण से वेधने लगा। दोनों में जब इस प्रकार बातें हो रही थी तब सुचरिता टेबलके पास बैठकर पंखे की आड़ से गोराको टकटकी बाँधे देख रही थी । जो बात होती थी सो उसके कान में आता अवश्य थी, किन्तु उस ओर उसका मन नहीं था। पूछने पर शायद वह न बता सकती कि मैंने क्या सुना है ! सुचरिता जो स्थिर दृष्टिले गोराको देख रही थी, सो उस सम्बन्धमें यदि उसका मन अपने हाथ से बाहर न हो गया होता तो वह अपनी इस धृष्टता पर लज्जित होती किन्तु वह मानो अपनेको भूलकर गोराको निहार रही थी। गोरा अपनी मजबूत बाँहोंको टेबलके ऊपर रक्खे हुए सामने झुका बैठा था । दिये की रोशनीमें उसका उन्नत ललाट चमक रहा था। उसके मुंह पर कभी घृणा, कभी व्यङ्गकी हँसी और कमी उत्साहका : चिह्न दिखाई दे रहा था । उसके मुँहके प्रत्येक भावसे एक प्रात्म-मर्यादा का गौरव लक्षित होता था। वह जो कह रहा था सो केवल सामयिक वितर्क या अक्षेपकी बात नहीं था। प्रत्येक बात उसकी पहलेकी सोची हुई सी जान पड़ती थी। उसमें किसी तरहकी दुर्बलता, दुबिधा या विचित्रता नहीं थी। उसके कण्ठसे जो कुछ निकलता था, सुदृढ़ भावसे भरा हुआ निकलता था। मानों उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गसे सुदृढ़ताका भाव प्रकाशित होता था । सुचरिता उसको आश्चर्य के साथ देखने लगी। सुचरिताने अपनी उम्न भर में इतने दिन बाद मानों पहले-पहल एक व्यक्तिको एक विशेष पुरुषके रूपमें देखा । उसको जोड़का और कोई पुरुष उसकी दृष्टिमें न पा सका । इस वितर्कमें गोराके विरुद्ध खड़े होनेसे ही हारान वाबू सुचरिताकी दृष्टिमें, हलके झुंचने लगे। उसके शरीरकी आकृति, उसका चेहरा, उसकी चेष्टा और उसकी पोशाक तक मानों माईक साथ दिल्लगी करने लगी। इतने दिन बारम्बार विनयके साथ ।