पृष्ठ:गोरा.pdf/१५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ १५७
गोरा

गोरा [ १५७ आते समय सुधीर उन सबोंका मार्ग सककर बीच में खड़ा हो रहा। उसकी इस नादानी पर सभी हँस पड़ी। लावण्य, ललिता श्रीर सतीश कभरेके भीतर आते ही गोराको देख ठिठक गये। लावण्य उलटे पैर कमरेसे बाहर हो गई ? सतीश विनयकी कुरसीके पास खड़ा होकर उसके कानके पास मुंह ले जाकर कुछ कहने लगा । ललिता सुचरिताके पीछे कुरसी खींचकर, उसकी आड़में अपनेको छिपाकर, बैठी। परेश बाबूने श्राकर कहा- मेरे लौटने में बड़ी देर हो गई। मालूम होता है, हारान बाबू चले गये ? सुचरिताने इसका कोई उत्तर नहीं दिया । विनयने कहा--जी हाँ, वे नहीं ठहर सके। गोरा ने खड़े होकर कहा-'अव हम भी जाते है, और मुक्कर परेश बाबू को प्रणाम किया। परेश बाबू-अाज अव तुम लोगों से बातचीत करने का समय नहीं रहा। जब तुम्हें फुरसत मिले, कभी कभी यहाँ अाना । गोरा और विनत्र जव घर से जाने को उग्रत हुए तव वरदासुन्दरी सामने आ खड़ी हुई। दोनों ने उसे प्रणाम किया। उसने कहा--क्या आप लोग अब जा रहे है ? रा-जी हाँ। वरदासुन्दरी ने कहा—विनय वाबू अभी नहीं जा सकते हैं । आपको वाकर जाना होगा । आपसे कामकी यात करनी है। सतीश लपककर विनय का हाथ पकड़ लिया और कहा हाँ, माँ, विनय बाबू को मत जाने दो । आज के रातको मेरे साथ रहेंगे। कुछ उचित उत्तर न दे सकने के कारण विनयको घबड़ाया हुआ सा देख वरदासुन्दरी ने गोरा से कहा-क्या आप विनय बाबूको अपने साथ ले जाना चाहते हैं ? क्या आपको इनसे कोई काम है ?