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गोरा

गोरा गोरा-कहां बहुत हो गया ! कुछ मी नहीं हुआ ! हमने औरत और मर्द को उनकी अपनी जगह पर खूब सहज भाव से देखना नहीं सीखा इसीलिए हम लोगों ने कुछ कवित्व जमा कर लिया है। विनय-अच्छा मैं मानता हूँ कि स्त्री पुरुष का सम्बन्ध ठीक जिस जगह पर रहने से सहल हो सकता, उस सीमा को हम प्रवृत्ति की झोंक में नांध जाते हैं और उसे मिथ्या कर डालते हैं, किन्तु यह अपराध क्या केवल विदेश ही का है ? इस सम्बन्ध में अँगरेजों का कवित्व अगर मिथ्या है तो हम लोग जो यह कामिनी काचन के त्याग की बात ले कर सर्वदा बढ़ बढ़ कर बातें मारते हैं वह भी तो मिथ्या ही है ! मनुष्य की प्रकृति जिसे लेकर सहज ही आत्मविस्मृत हो जाती है, उसके हाथ से मनुष्य को बचाने के लिए कोई तो प्रेम के सौन्दर्य अंशको ही कवित्व के द्वारा उज्वल कर देता है, उसके बुरे अंश को लजा देता है, और कोई उसके बुरे अंश या पहलू को ही बड़ा बनाकर कामिनी-कान-त्याग की व्यवस्था देता है। ये दोनों केवल दो भिन्न प्रकृतियों के लोगों की भिन्न प्रकार की प्रणालियां हैं । एक की अगर निन्दा करते हो, तो दूसरी के साथ भी रियायत करने से काम नहीं चलेगा। गोरा-ना, मैंने तुमको गलत समझा था। तुम्हारी हालत अभी दैसी स्वराब नहीं हुई है। जबकि अभी तक फिलासफी तुम्हारे मस्तिष्क के भीतर मौजूद है, तब तुम निर्भय हो कर लव (प्रेम) कर सकते हो । लेकिन हितैषी बन्धुओं का यही अनुरोध है कि समय रहते अपने को संभाल लेना। विनय ने व्यक्त होकर कहा-याः तुम क्या पागल हो गये हो ? मैं लव (प्रेम) करूँगा ! नगर हाँ, यह बात नुझे स्वीकार करनी ही होगी कि परेश बाबू के परिवार का जो कुछ मैंने देखा है और उन्के सम्बन्ध में जो कुछ नुना है, उससे उन लोगों के प्रति मेरे मन में यथेष्ट श्रद्धा उत्पन्न हो गई है। जान पड़ता है इसी से यह जानने के लिए मेरे हृदय एक प्रकार का अाकर्षण उत्पन्न हो गया था कि उनके घर के भीतर का जीवन कैसा है