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गोरा

१७८ ] गोरा मतको केवल रटी हुई वातोंकी तरह काममें न लायो। प्रश्नके ठीक तरहसे मनमें जाग उठने के पहले ही उसके सन्बयने किसी तरहका उपदेश देने जाना और भूख लगसेके पहले ही भोजन करने के लिए आहार देना एक ही है। उससे केवल अरुचि और अजीर्ण ही होता है । तुम जव मुझसे जो प्रश्न करोगी, तब मैं अपनी समझके माफिक उसके विषयमें कहूँगा। सुचरिताने कहा-मैं आपसे यही प्रश्न करती हूँ कि हम लोग जाति भेद की निन्दा क्यों करते हैं. ? परेश बाबूने कहा—एक बिल्ली थाली में हमारे साथ बैठकर खानेको खा जाय, तो कोई दोष नहीं, मगर एक मनुष्य उस स्थान या चौके में चला जाय, तो सामनेका अन्न छूत हो गया कहकर फेंक दिया जाता है ! मनुष्य के द्वारा मनुष्य का ऐसा अपमान, मनुष्यकी मनुष्यके प्रति ऐसी घृणा, जिस जातिभेदके भावमे उत्पन्न होती हो, उसे अधर्म न कहें तो और क्या कहें ? जो लोग मनुष्य की ऐसी घोर अवज्ञा कर सकते हैं, वे कभी पृथ्वी पर बड़े नहीं हो सकते ! उन्हें भी अपने प्रति औरों की ऐसी अवज्ञा सहनी ही होगी। सुचरिता गोरा के मुँहसे सुनी हुई बातचीतका अनुशरण करके कहा-बालकल यहाँ के समाजमें जो विकार उपस्थित हुआ उसमें अनेक दोषका रहना सम्भव है। किन्तु वह दोष तो समाजकी सभी चीजों में घुस गया है, तो क्या इसीसे असल चीजको दोष दिया जा सकता है ? परेश वाबूने अपने स्वाभाविक शान्त स्वर से कहा-असल चीज कहाँ है, जानता तो कह सकता। आँखों से प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि हमारे देशमें मनुष्य मनुष्य से झूठी वृक्षा करता है, और वह घृणाका भाव सबको अलग परस्पर विच्छिन्न किये दे रहा है। ऐसी अवस्था में एक काल्पनिक असल चीजकी बात सोचकर मनको सान्त्वना कहाँ मिलती है ? सुचरिताने फिर गोरा की बातों का अनुसरण करके कहा-अच्छा सबको समदृष्टिसे देखना ही तो हमारे देशका चरम सिद्धान्त था।