पृष्ठ:गोरा.pdf/१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[१९
गोरा

गारा [ १६ पास-पड़ोसियों की खबर लेती थीं । अगर कोई बीमार हुआ तो उसकी दवा आदि का प्रवन्ध करती थीं। इतना सब करके भी उनका बहुत सा समय बच रहता था, वह मानो काम काज की साक्षात् मूर्ति थी। उन्हें देखकर मन में उनके प्रति भक्ति और श्रद्धा होती थी। गोरा की माँ ने ऊपर आकर विनय से कहा-कहो भैया! तबियत तो अच्छी है न! इधर कई दिन से तु पाया क्यो नहीं ? विनय ने कुछ कुठित होकर कहा नहीं अम्मा तबियत तो खराब नहीं थी-इधर कई दिन से पानी बरस रहा था इसी से नहीं आ सका । मोरा कह उठा—यही बात है ! इसके बाद जब पानी न बरसेगा तव विनय कहेंगे कि धूप बड़ी कड़ी थी । असल मन की बात तो वह अन्तर्यामी ही जानते हैं। विनय ने चिढ़ कर कहा---गोर: यह दुम क्या व्यर्थ बकते हो । आनन्दनया ने कहा -सद तो हैं गोरा, इस तरह की बात न कहनी चाहिये : मनुष्य का मन का अच्छा रहता है, कभी नहीं रहता। सब 'समय एक सी तवियत नहीं रहती । इस बात को लेकर अधिक छेड़ छाड़ करना दूसरे का दिल दुखाना है ।-श्रा विनू, मेरी दालन में चला, मैंने तेरे लिए कुछ खाने का सामान तैयार कर रखा है। गोरा ने जोर से सिर हिला कर कहा-ना माँ, यह न होगा। तुम्हारी दालान में मैं विनय को खाने न दूंगा : आनन्दमयी ने लहान्यो गोरा ? तुझसे तो मैं किसी दिन खाने के लिए नहीं कहती ! तुम बाप-बेटे दोनों का अजब हाल है। उधर तेरे बाप भी तो एक दम भयंकर शुद्ध आचार के पक्षपाती हो उठे है। कुछ दिन से अपने हाथ का बनाया श्राप ही खाते हैं । लेकिन विनू मेरा बहुत ही सीधा लड़का है। उसमें तेरी तरह कट्टरपना नहीं है। तू ही उसे .कट्टर सदाचारी का दोग सिखलाता है-जबर्दली अपनी चाल पर चलाना चाहता है। गोरा-हाँ यह ठीक है, मैं जबर्दस्ती ही उसे अपनी चाल पर चला-