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गोरा

गोरा [ १६१ की युक्तियां असंगत हो, बल्कि असलमें सुचरिता ऐसी युक्तियों की खोजमें थी, किन्तु वह लेख पढ़ते ही विदित हो गया कि इस आक्रमण का लक्ष्य एक मात्र गोरा पर ही है। मगर उसका नाम नहीं था। न उसके लिखे किसी लेखका ही उल्लेख था । सैनिक जैसे बन्दूक की हर गोलीसे एक एक मनुष्यकी हत्या करके खुश होता है वैसे ही उस लेखके प्रत्येक वास्यसे कोई एक सजीव पदार्थ मानो छेदा जारहा है; और मानों उससे एक हिंसा का आनन्द ब्यक्त होता है। वह लेख सुचरिताको असह्य हो उठा। उसका जी चाहा कि वह उसकी प्रत्येक युक्तिको तीन प्रतिवाद से टुकड़े टुकड़े कर डाले । उसने अपने मनमें कहा कि गौर मोहन बाबू अगर चाहें, तो इस लेखको मिट्टी में मिला दें। गोरा का उज्जवल प्रदीत मुख-मण्डल सुचरिताको आँखों के आगे ज्योतिर्मय होकर जगमगा उठा और उसका प्रयल कण्ठस्वर सुचरिता की छाती के भीतर तक ध्वनित हो उठा, उस मुख और लरकी असाधा- रणताके निकट उस लेख और उसके लेखककी क्षुद्रता ऐसी ही कुछ हो उठी कि सुचरिताने उस पत्रको धरती पर फेक दिया। बहुत दिनोंके बाद उस दिन सुचरिता आपही से विनयके पास आकर बैठी, और कहा--आपने कहा था कि जिन पत्रोंमें आप लोगोंके खेल निकले है, उन्हें पढ़ने के लिए दीजिएगा, मगर अाप नहीं लाये । उत्तर में विनय ने कहा हां, मैंने उन पत्रों का संग्रह कर लिया है, कल ही ला दूंगा। विनय दूसरे ही दिन पत्रिकाओंकी एक गठरी लाकर सुचरिताको दे गया । सुचरिताने उन्हें पाकर भी फिर पढ़ा नहीं, बक्समें बन्द करके रख छोड़ा। पढ़नेको बहुत ही जी चाहने के कारण ही उसने उन्हें नहीं पढ़ा । उसने प्रतिज्ञा की कि चित्तको किसी तरह इधर उधर वहकने न दूंगी । अपने विद्रोही चित्तको फिर हारान वावूके शासनके अधीन अर्पण करके उसने और एक बार सान्त्वनाका अनुभव किया ।

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