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गोरा

M -- २१८ गोरा भावना नहीं थी, किन्तु बिना अपनेके अकस्मात मिले हुए नवीन अधि- कारका पूरा अनुभव करने के प्रलोमनस बिना प्रयोजन के भी उस अधिकार का व्यवहार किये बिना नहीं रह सका। रात गहरो अंधेरी थी। मेष-शून्य आकाश तारागणों ने जगमगा रहा था, नीचे चौड़ी नदी की प्रवल धारा चुप-चाप वह रही थी-उसीके बीच में. ललिता सो रही थी। और कुछ नहीं, केवल इम तुन्दर--इस बिश्वास-पूर्ण-निन्द्रा को ही ललिताने आज विनयके हाथमें सौंप दिया है। महा मूल्य रत्नके समान इस निद्राकी ही रखवालीका नार आज विनयने लिया है। पिता, माता, भगिनी, कोई नहीं है; एक अपरिचित शब्याके ऊपर ललिता अपने सुन्दर शरीरको डाले हुये निश्चिन्त होकर सो रही है। निश्वास प्रश्वास जैसे इस निद्रा काव्यके छन्दकी माप से, अत्यन्त शान्तनावसे गमनागमन करती है। उस कारीगरीके साथ वाँधी कई वेलासे एक केशभी स्थान च्युत नहीं हुआ। वे नारी हृदयके कल्याणकी कोमलतासे मन्डित दोनों हाथ परिपूर्ण विरामसे बिछौने के अपर पड़े हुए है कुसुम-सुकुमार दोनों पंदतल. अपना समल रमणीय गति-चेन्टाको उत्सवावसान के सङ्गीत की तरह स्तब्ध करके बिछौने के ऊपर फैले हुए हैं। विश्रन्ध विश्राम की इस छविने विनयको कल्पनाको परिपूर्ण कर डाला । सीपीमें मोतीके समान ही ग्रहं तारामण्डित निःशब्द तिमिर वेष्टित इस प्रकाश मंडलके मब स्थलमें ललिताकी यह निद्रा यह सुडौल सुन्दर संपूर्ण विश्राम-जगत में एकामात्र ऐश्वर्दक रूपमें बिनय को देख पड़ा। मैं जाग रहा हूँ--मैं जाग रहा हूँ, यह वाक्य विनयकं विस्फारित वक्षःस्थलसे अभय-शङ्ख ध्वनि के समान उट कर महा आकाशके अनिभेर जाग्रत पुत्र की निःशब्द वाणीके साथ मिलित हुआ । इस कृष्ण-पक्षकी रात्रिमें और एक खयाल विनय के हृदय को रह रह कर चोट पहुंचाने लगा, वह यहो कि गोरा अाज रातको जेल-खाने में है। अाज तक विनय गोराकी सनी सुख दुःखकी बातों में बराबर शरीक होता आया है—यही पहले पहल उसके खिलाफ हुअा विनय जानता .