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गोरा

२४४] गोरा वह गोराके लिए एकदम प्रकृति-विरुद्ध है। इसमें कुछ भी संदेह नहीं। किन्तु हम लोग क्या करेंगे ? वह समयानुसार काम नहीं करता, अाजकल का जो न्याय है, उसपर बह विचार नहीं करता । जिस जमानेका खयाल उसके दिमागमें बुसा है, अब वह जमाना नहीं । इस समय जान बूझ कर अपराध करने का जो दण्ड है वही भूल से भी करनेका दण्ड है । दोनों प्रकार के कैदी एक ही जेल में एक साथ ठू से जाते हैं । ऐसा क्यों होता है, इसका दोष एक ही आदमीके माथे मढ़ा नहीं जा सकता। कितने ही लोग इस दोषके भागी हैं । एकाएक इस प्रसङ्गको रोककर परेश बाबू पूछ बैठ- तुम किसके साथ आई हो? ललिता ने साहस करके कहा-विनय बाबूके साथ । बाहरसे वह चाहे जितनी प्रबलता प्रकट करती किन्तु उसके भीतर दुर्बलता थी। विनय बाबूके साथ आने की वात कहते समय लाख चेष्टा करने पर भी उसका स्वर स्वाभाविक नहीं रहा । उसमें कुछ विकार ना ही गया । लज्जा से बचनेके लिए खूब सावधान रहने पर भी न मालूम कहाँ मे कुछ लज्जा आ ही गई । चेहरे पर लज्जाका भाव छा गया है, यह समझ कर उसे और भी लज्जा हुई। परेश बाबू इस उद्धत-स्वभावकी लड़की को अपनी और लड़कियांक अलावा कुछ अधिक यार करते थे। इसके ब्यवहारकी और लोगोंक द्वारा निन्दा होने पर भी उसके प्रावरणमें जो सत्यनिष्ठता थी उसे वे विशेष श्रद्धाकी दृष्टिने देखते थे। वे जानते थे, ललितामें जो दोष है वही लोगों की नजर में विशेष रूपसे पड़ेगा, किन्तु इसमें जो गुण है वह, चाहे जितना ही दुर्लभ क्यों न हो, लोगों के निकट अादरणीय न होगा। परेश बाबू उसके दोष को न देख करके उसके गुणको ही यत्नपूर्वक श्राश्रय देते आये है ! वे ललिता को तुरन्त प्रकृति को दवानेकी चेष्टा करते हुए भी उसके भीतरका महत्त्व नष्ट करना नहीं चाहते थे। उनकी और दो बेटियोंको सब लोग सुन्दरी कहते थे। उनका रङ्ग गोरा था किन्तु ललिताका रङ्ग उन दोनोंकी अपेक्षा कुछ साँवला था । उसके चेहरके सौन्दर्य में भी भेद ,