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२५२ ]
गोरा

२५२ ] गोरा एक दिन साँझको आनन्दमयी चाई पर दोनों पैर पसारे बैठी थी। विनय उसके पैरके तलुवों पर सिर रखकर कहा- माँ, जी चाहता हूँ कि मैं अपनी सब विद्या, बुद्धि भुलाकर बालक वन तुम्हारी गोद में बैठू। संसारमें तुम्ही मेरी सब कुछ हो, तुम्हें छोड़ मैं और कुछ नहीं चाहता। विनयके कोमलता-मरे कण्ठसे एक ऐसा अान्तरिक भक्ति-भाव प्रकट हुआ जिससे अानन्दमयीने व्यथाके साथ आश्चर्य का अनुभव किया । वह खिसककर विनयके पास बैठ गई और धीरे-धीरे उसके माथे पर हाथ फेरने लगी । बढ़ी देर तक चुप रहकर आनन्दमयीने पूछा---विनय,परेश बाबूने घरका समाचार कैसा है ? इस प्रश्नसे विनय सहसा लज्जित हो चौंक उठा। सोचा, माँ से कोई बात छिपाना ठीक नहीं, मेरी माँ अन्तर्वामिनी है, उसने ठिठकते हुए कहा-हां, उनके घरका समाचार अच्छा है, सभी लोग कुशलपूर्वक हैं। आनन्दमयी-मेरी बड़ी इच्छा है कि परेश बाबूकी लड़कियों से मेरी जान-पहचान हो जाय । पहले तो उनके ऊपर गोराके मनका भाव अच्छा न था, किन्तु अब जब उन लोगोंने उसे वशमें कर लिया है तब वे साधा- रण लोगों में नहीं हैं। विनयने उत्साहित होकर कहा-मेरी भी कई बार यह इच्छा हुई हैं कि परेश बाजूकी लड़कियोंके साथ किसी तरह तुम्हारी भेंट करा दूं, किन्तु गोरा नाराज न हों इस भयसे मैंने कभी उसका जिक्र भी तुमसे नहीं किया। आनन्दमयीने पूछा--बड़ी लड़कीका नाम क्या है ? इस प्रकार प्रश्नोत्तर होते-होते जब ललिता का प्रसङ्ग आया तब विनयने इस प्रसङ्गको थोड़े ही में समाप्त कर डालना चाहा। किन्तु आनन्दमयीने न माना। ललिताके सम्बन्ध में प्रश्न पर प्रश्न करने लगी। उसने मुसकुराकर कहा-सुनती हूँ ललिताकी बुद्धि बड़ी तीब्र है। विनयने कहा--तुमने किसीसे सुना है ? यानन्दमयी-तुम्हींसे!