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गोरा

२८४] गोरा सुचरिताका मँह क्रोधसे लाल हो गया किन्तु ऐसा मात्र करके -मानो उसने कुछ सुना ही नहीं-वह मेज पर रक्खे कलम दावात और पुस्तकों को सँवारकर रखने लगी। परेश बापूने एक बार स्नेहकी कृष्टिसे सुचरिता की ओर देखकर हारान बाबूसे कहा-हम लोग जो कुछ खाते हैं सभी तो टाकुरजीका ही प्रसाद है ! हारानने कहा-~-किन्तु सुचरिता हम लोगोके ठाकुरजीको छोड़ना चाहती है। परेश- -अगर यही वात है तो इनके विरुद्ध बोलनेसे क्या होगा ! उसमें बाधा डालनेसे क्या उसका प्रतिकार होगा! हारान वाबू--जो मनुष्य धारामें बहा जा रहा है उसे ऊपर लानेकी चेष्टा करना भी तो उचित है। परेश —उस बहते हुए व्यक्तिके सिर पर ढेले मारनेको ही ऊपर लाने की चेष्टा नहीं करते । हारान बाबू श्राप निश्चिन्त रहिए, मैं सुचरिता को इतने दिनोंसे देख रहा हूँ। अगर वह बे रास्ते चलती तो आप लोगों से पहले ही मैं समझ जाता और इस तरह बेफिक्र न रहता। हारानने कहा- सुचरिता तो यहीं है। आप उसीसे क्यों नहीं पूछते ? सुना है, वह अब सबके हाथ का छूना नहीं खाती। क्या सुचरिताने हारान बाबू की ओर आकर्षित हो कर कहा-बाबूजी भी यह जानते हैं कि मैं सबके हाथका छूना नहीं खाती । यदि वे मेरे इस आचरणको बुरा नहीं मानते तो दूसरे के मानने ही से क्या ? यदि आपको मेरा यह आचरण अच्छा न लगे तो, आपकी खुशी है, जहाँ तक जी चाहे मेरी निन्दा कीजिए किन्तु पिताजी को क्यों दिक कर रहे हैं ? वे आप लोगों की कड़ी से कड़ी बातों को मी कितना सहन करते हैं क्या आप यह नहीं जानते ? शायद उसी का अह परिणाम है?