पृष्ठ:गोरा.pdf/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३९६ ]
गोरा

२६६ ] गोरा .. सुचरिताने कहा-यह बात मुझसे क्यों श्राप पृछते हैं ? पहले मेरा मन था, अब नहीं है, इतना ही क्या यथेष्ट नहीं है ? हारानने कहा- ब्राह्म समाजके धागे जो हम जवाबदेह है समाज के श्रादमियों के आगे तुम क्या जवाब दोगी, और मैं ही क्या कहूंगा ? सुचरिता-मैं कुछ भी नहीं कहूँगी। आप अगर कहना चाहे तो कहेंगे कि सुचरिताकी अवस्था थोड़ी है, उसके बुद्धि नहीं है, उसकी मति अस्थिर है । जो जी चाहे वही कहियेगा ? किन्तु मेरी इस बारे में यही आखिरी बात है-

-बस?

हारान -अाखिरी बात हो ही नहीं सकती। परेश बाबू अगर... इसी वीचमें परेश बाबू वहां आ गये। उन्होंने कहा—क्या हारान बाबू मेरी क्या बात आप कह रहे हैं ? सुचरिता इस समय दालान से अन्यत्र जा रही थी। हारान बाबू ने पुकारकर कहा --सुत्ररिता जाना नहीं। परेश बाबूके सामने बात हो जाय। सुचरिता घूम कर खड़ी हो गई ! हारानने कहा -~-परेश बाबू इतने दिन बाद आज सुचरिता कहती है कि इस विवाह में उसका मत नहीं है ! इतने बड़े विषय को लेकर उसको क्या इतने दिन तक लड़कपन या खेल करना उचित था ? यह जो निन्दनीय विन्न उपस्थित हुअा इस बातके लिए क्या आपको मी जवाबदेह न होना होगा? परेश बाबूने सुचरिताके सिर पर हाथ फेर कर स्नेह के स्वरमें कहा बेटी, तुम्हारे यहाँ ठहरने की जरूरत नहीं है, तुम जानो ? यह मामूली बात सुनते ही दम मर में सुचरिता की दोनों आँखें डबडबा बाई । वह चटपट वहाँ से चली गई। परेश वानूने कहा-सुचरिताने अपने मनको अच्छी तरह समझे बिना ही विवाहके लिए सम्मति दी थी--यह सन्देह बहुत दिनसे मेरे मनमें पैदा होने के कारण ही समाजके सब लोगोंके सामने आप लोगोंके सम्बन्ध को पक्का करने के बारे में मैं आपके अनुरोधका पालन नहीं कर सका था ।