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गोरा

२८] परेश बाबू-मैं समाजके द्वारा होने वाली निन्दाकी बात नहीं सोचता ! मैं सोचता हूँ-अच्छा ललिता क्या ...। परेश बाबू के संकोच को देख कर सुचरिताने खुद उस मामलेको स्पष्ट कर लेने की चेष्टा करते हुए कहा-ललिता बराबर अपने मनकी बात मेरे आगे खोलकर कह देती है। किन्तु इधर कुछ दिनसे वह मेरे आगे उस तरह अपने हृदय की थाह नहीं देती । मैं खूब समझ रही हूँ कि परेश बाबू बीच ही में बोल उठे-ललिताके मनमें ऐसे किसी भाव का उदय हुआ है, जिसे वह आप भी स्वीकार करना नहीं चाहती । मैं तो सोचकर भी कुछ ठीक नहीं कर पाता कि क्या करनेसे उसकी ठीक मीमांसा हो जा सकती है । अच्छा, तुम क्या कहती हो, विनयको अपने परिवारके भीतर जाने अाने देकर ललिता का कुछ अनिष्ट किया गया है ? सुचरिता–बाबू जी, आप तो जानते हैं, विनय बाबूमें कोई भी दोष नहीं है, उनका स्वभाव-चरित्र निर्मल है। साधारणतः उनके जैसे स्वभाषके सरल भद्र पुरुष कम ही देख पड़ते हैं । परेश बाबू जैसे कोई एक नया तत्व पा गये । वह कह उठे ठीक कहा तुमने राधे ठीक कहा ! वह अच्छे आदमी है कि नहीं, यही देखने की बात है-अन्तर्यामी ईश्वर भी वही देखते हैं । विनयको भला आदमी सजन समझने में मैंने जो भूल नहीं की है, उसके लिए मैं उन्हीं अन्तर्यामी स्वामी को बारम्बार प्रणाम करता हूँ। एक गोरख धन्धा सुलझ गया-परेश बाबूके जैसे जान आ गई। परेश बाबू अपने देवताके निकट अन्याय करके अपराधी नहीं हुए है यह सोच कर उनके मन में फिर किसी प्रकारकी कुछ भी म्लानि नहीं रही। यह अत्यन्त सहज बात इतनी देर तक न समझ कर वह क्यों इस तरह पीड़ा का अनुभव कर रहे थे, यह सोच कर उन्हें बड़ा आश्चर्य मालम पड़ा । सुचरिता के सिर पर हाथ रख कर उन्होंने कहा- तुम्हारे निकट मुझे प्राज एक नई शिक्षा मिली बेटी!