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३८६ ]
गोरा

३८६ ] गोरा विनयने उसे कितनी ही चितत्राङ्किपुस्तकें देकर पासवाले एक कमरे में चिराग जलाकर, विठाया। बरदासुन्दरी ने कहा-विनय, तुमतो ब्राह्म समाज में किसी को जानते नहीं हो । तुम एक चिट्ठी लिखकर नुझे दे दो, मैं कल सवेरे स्वयं जाकर सम्पादक महाशय को देकर सब वन्दोवस्त कर दूंगी जिससे रविवार को ही तुम्हारी दीक्षा हो जाय । तुमको अब कुछ भी तरदुस्त करना न पड़ेगा। विनय इस पर कोई उन्न न कर सका । उसने वरदासुन्दरीकी आज्ञाके अनुसार एक चिट्ठी लिखकर उसको दे दी। जो हो, अब एक मार्गकी श्राव- श्यकता थी जिससे कि दुविधामें पड़ने का उपाय न रह जाय । ललिता के साथ विवाह की चर्चा भी वरदासुन्दरीने छेड़ दो। वरदा- सुन्दरी के चले जाने पर विनय के मन में कुछ और ही भाव उदय हाने लगा यहाँ तक की ललिता का स्मरण भा अव उसके हृदय में असह्य हो गया। वरदासुन्दरी घर लौटकर आशा करने लगी कि ललिता को आज मैं प्रसन्न कर सकूँगी । ललिता विनयको हृदयसे चाहती थी यह वरदासुन्दरी भली भांति जानती था । इसलिए उन दोनों के विवाहकी बात पर समाजमें पहले खूब आन्दोलन मचा था। पीछे वह अपनेको छोड़ समी को इसके लिए अपराधी समझने लगी। कई दिनों तक उसने एक तरह से ललिताके साथ बातचीत करना छोड़ दिया था। किन्तु आज जब बात का फैसला हो गया तब वह अपनी इस सफलताको ललिताके निकट प्रकाशित करके उसके साथ सन्धि स्थापन करनेके लिए व्यग्र हो उठी। ललिताके पिताने तो सब मिट्टी कर दिया था ललिता स्वयं भी तो विनय को रास्ते पर न ला सकी हारान बाबूसे भी कोई सहायता न मिली अकेली वरदासुन्दरी ही ने सव-उलझनों को सुलझाया है। यां सोचते सोचते जब वह घर आई तब उसने सुना कि ललिता आज सबेरे ही सानेको चली गई है; उसका जी अच्छा नहीं है। वरदा- सुन्दरीने मन ही मन हँसकर कहा-मैं उसका जी अच्छा कर दूँगी।