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गोरा

। ४२० } गौरा गोरा-समयकी गति जलको तरङ्गकी भांति होती है। वह पाववत्ती भूमिको काटकर गिराती है, इससे हम यह नहीं मान सकते कि सूखी जमीन का कटकर गिरना ही उसका धर्म है। तुम यह मत समझो कि हम समाज की भली-बुरी बातों पर कुछ विचार नहीं करते। वह विचार करना इतना सहज हो गया है कि आज-कलके छोकरे भी विचारक हो उठे हैं। किन्तु मैं तुमसे सच कहता हूँ कि तुम्हारी समझ उन सबोंसे कहीं बढ़कर है । तुम्हारी दृष्टि बहाँ तक पहुँचती है, उनमें किसीकी दृष्टि वहाँ तक पहुँचते नहीं देखी । तुममें गहरी दृष्टि-शक्ति है, यह मैं तुमको देख- कर पहले ही समझ गया था। इसीसे मैं अपने इतने दिनोंकी हृदयकी सब बातोंको लेकर तुम्हारे पास आया हूँ। मैंने अपने जीवनकी घटनाओं को खोलकर तुम्हारे सामने रख दिया है। तुम उस पर विवेचना करो। मैं तुमसे कोई बात सोचवश छिपाना नहीं चाहता ! सुचरिता-आप जब इस तरह बोलते हैं तब मेरे मनमें बड़ी न्याकुलता मालूम होती है। आप मुझसे क्या चाहते हैं कहिए। मैं किस लायक हूं, मुझे क्या करना होगा ! मैं आपकी आशाको कहाँ तक पूरी कर सकूँगी, यह मैं नहीं जानती ! मेरे हृदयमें जो एक भाव का आवेग या रहा है, वह क्या है मैं कुछ नहीं समझती । सच पूछिए तो मुझे भय केवल इतना ही है कि मेरे ऊपर जो आपका विश्वास है उसे किसी दिन अपनी भूल समझकर कहीं आपको पछताना न पड़े। गोराने गम्भीर त्वर में कहा - भूलकी बात क्या कहती हो। तुमको अच्छी तरह जाँचकर ही मैंने तुम पर विश्वास किया है ! तुममें कितनी बड़ी शक्ति है, यह मैं तुम्हें दिखा दूंगा। तुम मनमें किसी बात का 'सोच न करो! तुम्हारी योग्यता प्रकट करने का भार मेरे ऊपर है। तुम मेरे ही भरोसे यह बात रहने दो। .. हरिमोहिनी अकुरकी पूजा करके रसोई-घरमें जा रही थी। सुचरिता के निःशब्द कमरे में कोई मनुष्य है यह भी उसे न जान तड़ा। किन्तु कमरे के मीतर दृष्टि डालकर हरिमोहिनी ने देखा, सुचरिता और गोरा