पृष्ठ:गोरा.pdf/४५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ ४५१
गोरा

गोरा [४५१ कारण उसके मनमें आज और भी हलचल मच गई है । पहले जिसने सारे संसार को सूना देखकर श्री गोपीरमणजी की सेवा में अपने व्याकुल चित्त को समर्पित कर दिया था उस देव पूजा में भी आज उसका जी नहीं लगता। इधर कुछ ही दिनों में हरिमोहिनी के मुँह और आँखों की भाव-भङ्गी तथा बचन-व्यवहारमें इस अभावनीय परिवर्तनका लक्षण देख आनन्दमयी एकदम भौंचक सी हो रही । सुचरिता के लिये उसके कोमल हृदयमें परिताप होने लगा। अगर वह जानती कि सुचरिता एक छिपे हुए संकट जालमें फंसी है तो वह कभी उसे बुलाने न आती। अव किस उपाय से सुचरिता को इस आघात से बचा सकेगा, यह उसके लिए एक अत्यन्त शोचनीय विषय हो गया ! गोरा को लक्ष्य करके हरिमोहिनी ने जब बात की तब सुचरिता सिर नीचा करके चुपचाप कोठेसे चली गई । आनन्दमयी ने कहा---बहन, तुम डरो मत; मैं पहले न जानता थी ! मैं उसे वहाँ जाने के लिए विवश करूंगी। तुम भी अब उससे कुछ मत कहो । वह पढ़ी-लिखी है, उस पर अधिक दबाव डालोगे, तो शायद वह न सह सके। अानन्दममी जब जाने लगी तक सुचरिता ने अपने कोठसे निकल असे प्रणाम किया। आनन्दमयी ने लेह और दया के साथ उसका सिर छू करके कहा-बेरी; मैं ऊंगी, तुमको सब खबर दे जाउंगी कोई दिन्न न होगा : ईश्वर की कृपा से यह शुभ काम समन्न हो जायगा। सुचरिता कुछ न वोली । दूसरे दिन सवेरे जव आनन्दमयी लकमिनियाको साथ ले नये मकान के चिर-सश्चित कूड़े करकट को साफ कराने गई और वह अपने हाथ से भी झाड़ने-बुहारने लगी, उसी समय सुचरिता आ पहुंची। आनन्दमदी ने झट झाडू फेंक उसे छाती से लगा लिया : 1