पृष्ठ:गोरा.pdf/४५४

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जेलखानेसे निकल कर आनेके बादसे गोराके पास दिन भर इतने लोग आने जाने लगे कि गोराके लिये घरमें रहना असह्य और असाध्य हो उठा । इसी कारण गोराने फिर पहलेकी तरह दिहातमें घूमना शुरू कर दिया। सबेरे कुछ खा-पीकर वह घरसे निकल जाता था, और एकदम रात को घर आता था। गाँवों में इस तरह घर-घर घूमता, लोगोंके मुख दुःख की खबर लेता है, यह उन लोगोंकी समझमें कुछ भी न आता था । यहाँ तक कि उन लोगोंके मनमें तरह-तरहके सन्देह उत्पन्न हुआ करते थे किन्तु गोरा उनके सारे सन्देह संकोचको ठेलकर उनके बीच में विचरण करने लगा। उसने जितना ही उन लोगोंके भीतर प्रवेश किया उतना ही केवल एक ही बात उसके मनके भीतर घूमने फिरने लगी। उसने देखा, इन सब दिहातोंमै समाबका बन्धन शिक्षित भद्र समाज की अपेक्षा अधिक है। प्रत्येक घरका खाना-पीना सोना-बैठना काम-काज सब कुछ समाजके निनिमेष नेत्रोंके आगे दिन-रात विद्यमान है ! हर एक आदमीको ही लोकाचारके ऊपर एक अत्यन्त सहज विश्वास है-उसके सम्बन्ध में वे लोग जरा-सी भी बहस नहीं करते। किन्तु समाजका बन्धन और प्राचार निष्ठा इन लोगोंको कर्म क्षेत्रमें कुछ भी बल नहीं देती। इन लोगोंके समान ऐसे भयभीत, असहाय, अपने हिताहितका विचार करने में अक्षम अपाहिज जीव जगत्में कहीं है या नहीं, इसमें सन्देह है। गोर यह देखे बिना नहीं रह सका कि इस अचारके अस्त्रसे मनुष्य