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[७] कई दिन अनेक प्रकारकी पीड़ा भोगनेके अनन्तर इन कई दिनों में आनन्दमयी के पास सुचरिता ने जो सुख चैन पाया वैसा कभी न पाया था । आनन्दमयीने ऐसे सहज भावसे उसे अपना लिया है कि किसी दिन वह उसके लिए अपरिचित थी या दूर थी इसे सुचरिता सोच भी न सकी थी। श्रानन्दमयी न जाने सुचरिता के मन का भाव कैसे जान गई! वह कुंछ न कहकर भी सुचरिताको एक गहरी सान्त्वना दे रही थी। सुचरिता "माँ" शब्द को इसके पूर्व इस प्रकार स्पष्ट और उत्कण्ठा सहित कभी उच्चारण नहीं करती थी। कोई प्रयोजन न रहने पर भी वह आनन्दमयी को केवल "माँ" कहकर पुकारने के लिए अनेक प्रकारके बहाने रचती और बार-बार उसे "माँ" कहकर पुकारती थी। ललिताके ब्याहका जब सब काम ठीक हो गया, तब थके शरीरसे बिछौने पर लेटकर सुचरिता यही सोचा करती थी कि मैं अब आनन्दमयी को छोड़ कैसे अपने घर जाऊँगी । वह आपही आप कहने लगी--"माँ, माँ !” यह कहते- कहते उसका हृदय भक्तिसे भर गया और पाखोंसे आंसू बहने लगे। इसी समय आनन्दमयी मसहरी उठाकर उसके पलङ्ग पर श्रा बैठी और उसके बदन पर हाथ फेरने लगीं। विनयका व्याह हो जाने पर आनन्दमयी तुरन्त विदा न हो सकी। उसने कहा, ये दोनो गृहकार्य से अनभिज्ञ हैं । इनके घर का सब प्रबन्ध किये बिना मैं कैसे चाऊँगी? सुचरिताने कहा-माँ, तो मैं भी तब तक तुम्हारे साथ रहूँगो । ललिताने उत्साहित होकर कहा-हाँ माँ, सुचरिता बह्न भी कुछ दिन हमारे साथ रहे। फा० नं. ३०