पृष्ठ:गोरा.pdf/४८४

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YEY] योराने फिर सिर हिलाया। यह भी नहीं हो सकता ! चिट्ठी पत्री हरिमोहिनीने कहा-अच्छा, तुम मुझीको दो लाइन लिख दो ! तुम तो सभी शास्त्र जानते हो, मैं तुमसे व्यवस्था लेने आई हूं। गोराने पूछा-काहेकी व्यवस्था ? हरिमो० -- हिन्दूके घरकी लड़कीके लिये व्याह के लायक अवस्थामें न्याह करके गृहस्थाश्रम का पालन करना ही सबसे बढ़कर धर्म है कि नहीं-इसी की। गोराने कुछ देर चुप रहकर कहा-देखिए, आप इन सब बातों में मुझको न लपेटिए । व्यवस्था देनेके लायक मैं पण्डित नहीं हूँ, और न यह मेरा काम है। तब हरिमोहिनीने जरा तीब्र भावसे ही कहा .. तो फिर अपने मनके भीतरकी बात खोलकर ही क्यों नहीं कह देते ? शुरूसे गुत्थी तुम्हीने डाली है, अब खोलने के समय कहते हो कि मुझे न लपेटिए । इसके क्या माने ? असल बात यह है कि तुम नहीं चाहते कि सब मामला साफ हो जाय-सुलझ जाय । और कोई समय होता, तो गोरा इतने ही में आग बाबूला हो उठता। ऐसे अपवाद को वह किसी तरह भी सहन सकता। किन्तु आज उसका प्रायश्चित शुरू हो गया है, इससे उसने क्रोध नहीं किया। उसने अपने मन के भीतर डूमकर टटोल कर देखा, हरिमोहिनी सत्य ही कह रही है। बहू सुचरिता के साथ अपने बड़े बन्धन को काटने के लिए अवश्य निर्मम हो उठा है, किन्तु एक सूक्ष्म सूत्रको जैसे उसने देख ही नहीं पाया इस तरह वह बनाये रखना चाहता है। वह सुचरिताके साथ सम्बन्धका अब भी सम्पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर सका। किन्तु कृषएता दूर ही करनी होगी । एक हाथ से दान करके दूसरे हाथसे उसे पकड़े रहने से काम नहीं चलेगा।