पृष्ठ:गोरा.pdf/७२

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[ ११ ] उस दिन गोराको बहसमें हराकर सुचरिताके सामने अपनी विजय-पताका उड़ानेकी हारान बाबूको बड़ी इच्छा थी । शुरू में सुचरिताको भी इसकी आशा थी। पर दैवयोगसे ठीक इसका उलटा हुआ। धर्म-विश्वास और सामाजिक मतमें मुचरिताके साथ गोराका मेल न था, किन्तु स्वदेशके प्रति ममता और स्वजाति के लिए दुःखका अनुभव उसके लिए स्वाभाविक था। यद्यपि देशकी बातोंके विषय में वह कभी विशेष अालोचना नहीं करती थी तो भी उस दिन अपनी जातिकी निन्दा सुनकर गोरा जब एकाएक गरज उठा तब सुचरिताके मनमें उसके अनुकूल प्रतिध्वनि होने लगी। ऐसे जोरसे ऐसे दृढ़ विश्वासके साथ देशके सम्बन्धमें उसके आगे किसीने आज तक ऐसी बात न कही थी। इसके बाद जब हारान बाबूने गोरा और विनयके परोक्षमें सामान्य ईर्ष्या वश उन पर अभद्रताका दोषारोपण किया तब भी सुचरिताको इस अन्यायके विरुद्ध गोरा और विनयका ही पक्ष लेना पड़ा । इससे यह न समझना चाहिये कि गोराके विरुद्ध सुचरिताके मनका विद्रोह एकदम शान्त हो गया । नहीं, गोराका गले पड़ा उद्धत हिन्दुत्व अब भी सुचरिताके मनमें आघात पहुँचा रहा था। वह एक प्रकारसे यह समझ रही थीं कि इस हिन्दूपनके भीतर अवश्य कुछ प्रतिकूलताका भाव है। यह अपने भक्ति विश्वास में पर्याप्त नहीं है। यह दूसरेको दवाने के लिए सदा ही उन मावसे उद्यत रहता है। उस दिन शामको सब बातामें, सब कामोंमें भोजन करने के समय लीलासे बात करते समय सुचरिताके मनमें किसी तरहकी एक पीड़ा कष्ट देने लगी। वह किसी तरह उसे दूर न कर सकी । काँटा किस जगह गड़ा ७२