पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/११३

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कामरेड १९५ .. .. . श्राये और दो पैसे देकर उसके सूखे ठठरो के समान शरीर को खरीद ले । उस वेश्या ने भी उस शब्द को सुना परन्तु मुस्कराते हुए परेशान सी होकर उसने इसका उच्चारण करने का साहस किया । एक आदमी उसके पास पाया , में से एक जिन्होंने इससे पहले इस रास्ते पर कदम नहीं रखा था । उसने उस वेश्या के कन्धे पर हाथ रखा और उससे इस प्रकार बोला जैसे कोई अपने भाई से बोलता है। " कामरेड ! " उसने कहा । वह इस प्रकार मधुरता और बज्नापूर्वक हंसी जिससे अत्यधिक प्रसन्नता के कारण रो न उठे । उसके द्रुग्यो हृदय ने इससे पूर्व इतनो प्रसन्नता का अनुभव कमी नहीं किया था । ओंसू , एक पवित्र और नवीन सुख के प्रासू , उसकी उन आँखों में चमकने लगे जो कल तक पथराई हुई और भूखी निगाह से संसार को घूरा करती थीं । परित्यक्तों को यह प्रसन्नता, जिन्हें संसार , के श्रमिकों की श्रेणी में शामिल कर लिया गया था , नगर की सड़कों पर चारों ओर चमकने लगी और उसके घरी की धु धलो आँखें इमे बढ़ते हुए द्वप और करता से देखने लगी । वह भिखारी, जिसं कल तक बड़े श्रादमी , उससे पीछा छुड़ाने के लिये एक पैसा फेंक दिया करते थे और ऐसा करके यह समझते थे कि प्रामा को शान्ति मिलेगो , उसने भी यह शब्द सुना । यह शब्द उसके लिए पहली भीख के समान था जिसने उसके गरीय , निर्धनता से नष्ट होते हुए हृदय को समझता और कृतज्ञता से भर दिया था । यह तोंगे वाला, एक छोटा सा भद्दा श्रादमी , जिसके ग्राहक उसकी . पीठ में इसलिये घूसे मारते थे कि जिससे उत्तेजित होकर वह अपने भसे, हटे शरीर वाले यह को तेज चलाने के लिये इंटर फटकारे । वह आदमी घूसे पाने का आदी था । परयर की सड़क पर पहियों में उत्पन्न होने यालो पदसड़ाहट की ध्वनि से उसका दिमाग जद हो गया था । उसने मी पूर अच्छी तरह से मुस्कराते हुए एक रास्ता घलने वाले से कहाः "alगे पर पदना चाहते हो . . ." " कामरेड ? "