१२२ मोड्पीया की लवकी - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- लगता था -- नव वे परदे पर मूक छायाओं को चलते फिरते देखते थे । यह सब कितना अच्छा और कितना मनोरञ्जक था । वे दुख से भरे हुए दिन थे । वह अभी जेल से छूटा था और उसने बाहर श्राकर देखा कि सब कुछ बर्बाद हो गया है । वे लोग जो पहले प्रसन्नता से खिल कर उसका स्वागत करते थे अव उन बातों पर बिगह उठते थे जो पहले उनमें उमंग भर देती थीं । छोटी घुघराले वालों और भूरी आँखों वाली श्रोल्गा गासी हुई उसके पैरों से लिपट गई " दादा मुझे प्याल कलते हैं , दादा मुझे गुरिया के दो , मुझे मिठाई ले दो .. " उसने अपनी उँगली पर लटकती हुई पानी की वूदों को उस बच्ची के चहरे पर दिदक दिया । वच्ची किलकारती हुई भागी । उसने अपनी स्त्री से धीमी आवाज में कहा " दाशा श्रानो, हिनहिनामओ मत " छोटी सी श्रोल्गा ने चर्किन के भारो सिर को कठिनता से ऊपर उठाते हुए आज्ञा दी " देव, देख, मैं तुझ से कह रही हूँ .. . " कुत्ते ने उसकी तरफ ध्यान न देते हुए सिर नीचा कर लिया --वह बहुत कुछ देख चुका था । अपने जबड़े खोलते हुए वह धीरे से घुर्राया । " जब यह पति इतना चालाक श्रादमी है कि उसे अपने साथी अपने घर वालों से ज्यादा अच्छे लगते है , " उसको स्त्री बेरहमी से उसके हृदय को कचोटती हुई कहने लगी । पावेल अहाते के वींचौबीच वहा था । खुले हुए दरवाजे से टसे जगल के वृक्षों की कतार दिखाई दे रही थी । एकवार , पहले , वह दाशा के साथ नीचे जाने वाली ठलुवाँ सडक पर पड़ी हुई एक देंच के ऊपर बैठा था और दूर तक फैले हुए दृश्य को देख कर उसने कहा था " सुनो, क्या हम एक साथ रह कर सुखी होने नहीं जा रहे है "
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