१८० खुढ़िया इज़रगिल - - उस दुष्ट को प्यार करती थी . .. परन्तु जब हम मिलते तो वह मेरा मज़ाक उड़ाता • नीच पशु • इतना ही नहीं वह दूसरे आदमियों से भी मेरा मजाक उड़वाता था - मुझे अच्छी तरह मालूम था । मेरे लिए यह सहन करना वढ़ा कठिन था । परन्तु फिर भी कम से कम वह मेरे पास तो था और मैं उसे प्यार करती थी जब वह तुम - रूसी लोगों से युद्ध करने चला गया तो मैं उसके वियोग में बीमार पड़ गई । मैंने उसके ख्याल को भुला देने को बड़ी कोशिश की परन्तु असफल रही । अन्त में मैंने उसके पास जाने का निश्चय किया । वह वारसा के नजदीक जगलों में तनात था । " लेकिन जब मैं वहाँ पहुंची तो ज्ञात हुश्रा कि तुम लोगों ने उन्हें पहले ही हरा दिया है और वह पासके ही एक गाँव में युद्ध बन्दी के रूप में बंद है । " ____ " इसका मतलब था कि अब मैं उसे कभी भी न देख सकूँगी-- मैने मन में सोचा । परन्तु , श्रोह ! मैं टसे देखने के लिए कितनी न्याकुल थी । इसलिए मैंने उससे मिलने का प्रयत्न किया । मैंने एक लगड़ो मिखारिन का रुप बनाया और कपड़े से अपना मुंह ढक कर गाँव में पहुँची । पर गाँव कज्जाकों और सिपाहियों से भरा हुया था । मैं बड़ी मुश्किल से वहाँ तक पहुच सकी । मैंने उन कैदियों का पता लगा लिया । मैंने देखा कि उन कैदियों तक पहुँचना बड़ा कठिन था । परन्तु किसी भी प्रकार मुझे वहाँ पहुँचना तो था ही । इसलिए एक दिन रात्रि के अन्धकार में रेंगतो हुई चुपचाप वहाँ गई--एक तरकारी के खेत में होती हुई, मेंदों की श्राद लेती हुई कि अचानक एक सन्तरी ने मेरा रास्ता रोक लिया । मुझे । रन कैदियों को गाने की और बातें करने की आवाज साफ सुनाई दे रही यो । वे ईश्वर की माता का भजन गा रहे थे और उसमें मुझे अपने पार्फडक की भागज माफ सुनाई दे रही थी । मुझे अपने वे दिन याद अाए जब श्रादमी मेरे सामने दुम हिलाया करते थे और प्राज मेरी यह दशा थी कि मैं एक श्रादमी
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