पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१७८

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बुदिया इजरगिल के पीछे जमीन पर साँप की तरह रेंग रही थी और सम्भव था कि इसमें मेरी मृत्यु हो जाती । सन्तो ने मेरी आवाज सुनो और श्रागे बढ़ा । अब मैं क्या करती ? मैं उठ खड़ी हुई और उसकी ओर बढ़ी । मेरे पास न तो कोई चाकू था और न कोई और चीज मेरे पास उस समय केवल मेरे हाथ और जवान की ही ताकत थी । मुझे अफसोस हो रहा था कि मैं अपना खन्जर क्यो न ले आई । मैंने फुसफुसाते हुए कहा - ठहरो । परन्तु उस सन्तरो ने अपनी समोन मेरे सीने पर श्रदा दी । मैंने धीमी श्रावाज में उससे कहा - मुझे मारो मत, ठहरो । यदि तुम्हारे हृदय है तो मेरी यात तो सुन लो । मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है परन्तु मैं तुमसे भीख मांगती हूँ । उसने अपनी बन्दूक नीची करनी और धीमी अावाज में मुझसे कहा - ए औरत भाग जाश्रो । तुम यहाँ क्या करती हो ? मैंने उसे बताया कि यहाँ मेरा पुन बन्दी है सिपाही , समझे, " मेरा बेटा । तुम्हारे भी एक माँ होगी ? है न ? तो मुझे देखो " मेरे भी तुम्हारी हो तरह । एक पुत्र है और वह यहाँ बन्दी है । मुझे केवल एक यार ठग्ने देख लेने दो । शायद उसे शीध्र हो मरना पड़े और सम्भव है कि कल तुम भी मारे जायो । उस समय क्या तुम्हारी माँ तुम्हारे लिए नहीं रोयेगी ? क्या तुम्हारे लिये यह दुखदायी नहीं होगा कि तुम बिना अपनी माँ को देसे ही मर जायोगे ? ऐसी ही दशा मेरे पुत्र की भी होगी । अपने ऊपर मेरे उस बेटे के ऊपर और मेरे ऊपर - एक माँ के ऊपर -रहम करो । " " श्री | कितनी देर तक मैं उससे विनती करतो रही । पानी पद रहा था और हम दोनों भीग गये थे । वायु जमे मुद होकर फुसकावी ....हुई मेरे थप्पड़ मार रही थी - कभी पीठ पर और कमो छाती पर । मैं उस सा दिल मैगिक के सम्मुप गदी काँर रही थी परन्तु वह कहना जा रहान हीं? कदापि नहीं ! " और प्र येक चार सय में उस शान्त पार पंक्षापूर्ण शब्द को सुनतो नो मेरे हदय में धरने घाक को देखने को मिलापा और पहनती हो उठती । यात करते करते अचानक मैंने टस सिपाही को एक्द लिया यह दांटा मा